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श्री विश्वकर्मा शतकम्

        धीमतो द्दिजवरस्य महर्ष: शिल्पशास्त्र रचनानिपुणस्य ।        विश्वकर्मविबुधस्य मुदेहि स्वागतां वितनुम: शतकेन ।।1।।        शिल्पशास्त्र के रचयिता, धीमान् ब्राह्मण, महर्षि विश्वकर्मा के आविर्भाव का इन 100 संस्कृत श्लोकों द्वारा        स्वागत करता हैं।        (क) रतोद्धता वृत्तम्        प्रक्रियां रचियता रथोद्धतां येन वेदविदुषा विजन्मना ।        शिल्पतल्यमविकल्पि कल्पितं विश्वकर्मविबुधं तमीड्महे ।।2।।        वेद् के विद्वान् जिस ब्राह्मण ने स्थादि निर्माण की प्रक्रिया को रचते हुए असंदिग्ध शिल्पशास्त्र को प्रकट क्या है,        उस विश्वकर्मा धीमान् की हम स्तुति करते है।        शिल्पिनां प्रियतमेन धीमात् ब्राह्मणेन भुवि विश्वकर्मणा ।        यन्नृणामुपकृतं ब्रह्त्तम् तं महर्षिननिशं स्तुवीमहं ।।3।।        समस्त शिल्पियों के प्यारे धीमान् विश्वकर्मा ने संसार में जो मनुष्यों का बहुत भारी उपकार किया है,        उसके लिऐ हम उस महर्षि का हर समय स्तुति करते है।        यस्त नाम भुवने महद् यशो भौंवनस्य बहुश: प्रकाशते ।        तत्प्रशस्ति मधिकृत्य संस्कृतुं विश्वकर्मसतकं निबध्यते ।।4।।        जिस भुवन के पुत्र (रक्षक) भौवन विश्वकर्मा का बहुत यशस्वी नाम संसार में प्रकाशित है उसकी        प्रशंसा के निमित यह संस्कृत श्लोकों में ‘विश्वकर्मशतकम्’ नामक लघु ग्रथं बनाया जाता है।        (उपजाति वृत्तम)        ब्रह्माण्डमूलं प्रथमो विघाता स विश्वकर्मा परमेश्वरो स्ति ।        वेदानुकूलं जगतः स्वशक्तृया सृष्टि स्थिति संह्रतिमातेमानोति ।।5।।        प्रथम बाह्मण का मूल, विधान करने वाला विश्वकर्मा परमेश्वर है जो अपनी शक्ति से        वेदानुकूल जगत् की उत्पत्ति और प्रलय करता है।        उत्पादयामास या आदिशिल्पी वर्णान् यशास्वं गुणकर्मयुक्तान् ।        विशिष्टलोकव्यवहारहेतूनृ सब्राह्मानृ क्षत्रियवैसश्य शूद्रान ।।6।।        जिस आदि शिल्पी ने अपने-अपने गुण कर्म स्वभाव के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णो को        विशेष लोक व्यवहार की सिद्ध के लिए बनाया है।        समस्तमेतद् भुवनं स देवः कर्मपधानं रचयन् समन्नात् ।        चेष्टाभिरिष्टामि स्नल्प शिल्पत्रिया विशौषाहनिह तन्तनोति ।।7।।        वह देव इस समस्त विश्व को सब और से कर्म प्रधान बनाता हुआ अपनी चेष्टाओं से बहुत बंडी        शिल्प क्रियाओं को फैला रहा है।        तपस्विनः संयमिनः पुरा ये ख्यार्ति गताः कर्मणि कौशलेन ।        तेषा समेषामपि कर्म मुख्यं मतं स्वतो जीवनयापनाय ।।8।।        जो पहले तपस्वी सयंमी लोग अपनी कर्म कुशलता से प्रसिद्धि को प्राप्त हुए है, उन सबने भी अपना जीवनयापन        करने के लिए कर्म को ही मुख्य माना है।        शुभानि कर्माणि सदैव शतं समाः साधु जिजीविषेन्ना ।        एतद् यजुर्वेद्वचः प्रमाणं मत्वा क्रियाशिल्पविदेह भव्यम् ।।9।।        मनुष्य इस संसार में सदा श्राम कर्म करता हुआ ही सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखें। इस यजुर्वेद के वचन को प्रमाण        मानकर शिल्रक्रिया का जानकर होना चाहिए।        संसिद्धिमाप्ताः खलु कर्मणैव लोके प्रसिद्धा जानकादयोपि ।        तस्माद् बुधैः कर्मर्यवित्त्यै स विश्वकर्मा प्रभुरेषणीयः ।।10।।        लोक मे प्रसिद्ध जनक आदि राजर्षि भी कर्म से ही सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। इसलिए विद्वान् लोगो को कर्म का रहस्य        जानने के लिए उस विश्वकर्मा प्रभु की उपासना करनी चाहिए।        ज्येष्ठं परं ब्रह्म विराड् महेशस्त्वष्टा जगद्योनिरचिन्त्यशक्तिः।        विश्वस्य धाता भगवान् पुराणः स विश्वकर्मा प्रभुरर्चनीयः।।11।।        सबसे बडा, ज्येष्ठ ब्रह्म, विराट् शक्तिसंपन्न, महेश्वर, शिल्प रचना करने वाला, जगत् का कारण, अलैकिक        सामर्थ्यशाली, विश्व का धाता, भगवान पुरातन वह विश्वकर्मा प्रभु पूजनीय है।        यः शिल्पिमुख्यः प्रमुरीश्वरः स क्वचितृ कदाचिन्न विनाशमेति ।        सर्वत्रगं ज्योतिरिदं तदीयं, तस्यैव भासा सकलं विभाति ।।12।।        जो शिल्पियों में मुख्य प्रभु ईश्वर है वह कहीम पर कभी नाश को प्राप्त नहीं होता।        सर्वत्र उसी की यह ज्योति फैली हुई है। उसी के प्रकाश से सब प्रकाशित होता है।        पुरःसरोsसौं समवर्तताग्रे समग्रसंसारमजीनच्च ।        अनल्पशिल्पेन बुधोन तेन प्रवर्तिता सृष्टिरयं पुराणी ।।13।।        वह सबका अग्रणी पहले विद्यमान था। सारे संसार को उसी ने बनाया। बहुत बडे शिल्प वाले उसी विद्वान की चलाई        हुई यह पुरातन सृष्टि चल रही है।        होता पिता नः स इमान् समस्तांकल्लोकान् गुरूत्वात सतत बिर्भाति।        उपाददानो निजशिल्पवित्तं प्रैर्णोन्महिम्ना प्रथमच्छद्न्यान् ।।14।।        वह हमारा पालन पिता, हवन करले वाला, पुकारने वाला योग्य, अपने गौरव से उन समस्त लोकों का        पालन-पोषण करता है। अपने शिल्प धान को लेकर निजमहिमा से अन्यों को ढक देता है।        सबसे सबको ढकने वाला वही देव है।        अन्तर्निविष्टो भुवनेषु गूढं से प्रौढि स प्रौढनिविष्टभारः ।        जगद् विचित्रं तनुते स्वशिल्पचक्रेन विचाल्यमानम् ।।15।।        क्योंकि वह देव अन्यों से अशक्य सब दुष्कर शुभकर्मो के करता है इसलिए अर्थातनुकूल ‘विश्वकर्मा’        इस उत्तम सज्ञां को धारण करके शोभित हो रहा है।        इंमा स भूमि जनयन् विशालां द्यो चापि सद्यः कृतशिल्पविद्य ।        आरम्भणे तन्निजमाययैव स्वयं ह्मधिष्ठानमपि न्यामान्त्सीत् ।।16।।        स्वंय शीघ्र विद्या का निर्माण करना वाले उस देव ने इस विशाल भूमि और द्युलोक को पैदा किया।        उसके आधार तथा निर्माण साधान को भी ऩिज माया से ही उसने बनाया।        किं स्वितृ वनं ततजजततृ क्व स वृक्ष आसीद् यतो भुवं द्या त विस्ततक्ष।        मनीषिणोsद्यापि विचारयन्ति प्रत्युत्तंर तस्य नचाप्नुवन्ति ।।17।।        वह कौन-सा वन तथा उश वन में कहां वह वृक्ष था जिसने उसने द्योलोक भूलोक का निर्माण किया।        विचारशील लोग आज भी इस बात का विचार करते है किन्तु उसका जवाह नहीं मिलता ।        सप्तर्षिमुख्यः स महान महर्षि स्वयं स्वधामान्याखिलानि वेद ।        मर्धभिषिक्तो रविचन्द्रताराग्रहादिसृष्टयास्ति विचित्रमूर्तिः ।।18।।        वह महान् महर्षि सप्तर्षियों में मुख्य है। स्वयं अपने धामो को जानता है। तब का शिरोमणि,        सूर्य चन्द्र तारागणदि की सृष्टि से विचित्र मूर्ति वाला है।        मुग्धा भवामोsस्य जगद् विसृष्टि मुहुर्लोचनलोभनीयाम् ।        स एव भूरि प्रथितोsत्र सूरिरस्माकमूरी कुरूतान् प्रशस्तिम् ।।19।।        आंखो को लुभाने वाली उस देव की विचित्र सृष्टि को देखकर हम लोग मुग्ध होते हैं। वहीं विद्वान इस संसार        मे प्रसिद्ध है । हमारी की हुई भारी प्रशंसा को स्वीकार करें।        पुरोsस्य देवस्य दिवस्पृथिव्यो नन्नम्यमाने इव समविभातः।        स्तब्धो भयादुद्धिजमानरूपे उभे अतनद्रे निजकर्माणि स्तः ।।20।।        इस देव के सामने द्युलोक और झुके हुए से दिखते है। निश्चल भय से मानो कापतें हुए दोंनों        अपने काम में जागरूक है।        द्रष्टा तटस्थो जडचेतनस्य मधये विराजत्यविलिप्तरूपः।        स देव एवेतरदेवनाम्नामाम्नाममुच्चैश्चरितेन धत्ते ।।21।।        वह देव तटस्थ द्रष्टा बना हुआ जडं और चेतन के मध्य में अलिप्तरूप से रहता है।        अपने ऊचे चरित्र बल से सब अन्य देवताओं के नामों को धारण करता है।        सर्वाः समस्या भुवि यस्य पार्श्वे गता अयत्नेन समाहिताः स्युः ।        प्रकृष्टसंतुष्टिसुखस्य दाता स विश्वकर्मास्तु सदा नमस्यः ।।22।।        जिस देव कैंसे इस अद्भुत सृष्टि को बनाता है और कैसे उसका पालन करता है,        जिज्ञासु लोग उसको इस महिमा को जताने के लिए ही उससे प्राप्त शिल्प विद्या का विस्तार करतें हैं ।        कथ स सृष्टिः रचयत्यपूर्वा कथं च तत्पालनमातनोति ।        जिज्ञासवस्तन्महिमामेते तच्छिल्पिनः शिल्पमनल्पयन्ति ।।23।।        वह देव कैसे इस अद्भुत सुष्टि को बनाता है और कैसे उसका पालन करता है,        जिज्ञासु लोग उसको इस महिमा को जताने के लिए ही उससे प्राप्त शिल्प विद्या का विस्तार करतें है।        सूक्ष्माच्च सूक्ष्मः स परात् परेस्ति विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता ।        सुशिल्पविज्ञाननिधि तमेव श्री विश्वकर्माण स्तवीमि ।।24।।        वह देव सूक्ष्म और परे से परे हैं । विश्व भुवन का कर्मा और रक्षक हौं।        सुन्दर शिल्पविद्या के निधि उस विश्वकर्मा देव की मैं स्तुति करता हूँ।        सम्यड् न, ज्ञातुममी समर्था देवा मनुष्या असुराश्च सर्वे ।        अन्तःस्थितो यश्व सदा समेषां तं विश्वकर्माणमहं स्तवीमि ।।25।।        जिस देव को देव, असुर, मनुष्य में सब ठीक तरह से जानन् में असमर्थ हैं।        जो सदा सबके अदंर स्थित हैं बस विश्वकर्मा देव की में स्तुति करता हूँ।        अज्ञानिनो ज्ञत्रामिमानवन्तो निरर्गलं वाचमुदीरयन्ति ।        यं तत्तवते नव विदुस्तन्व श्री विश्वकर्माणमहं स्तवीमि ।।26।।        ज्ञाता का अभइमान रखने वाले अज्ञानी लोग जिस देव को यशआवत् नहीं जानते।        व्यर्थ वाणी बोलते हैं। उस विश्वकर्मा देव की मैं स्तुति करता हूँ।        जना यथार्थप्रविवेकशून्य मुधौ व वाचो ग्लपयन्ति परिमन्।        देवं तमन्तः प्रधिधानदृश्यमं श्री विश्वकर्माणमहे स्तवीमि ।।27।।        यथार्थ विचार से शून्य लोग जिस देव के विषय में व्यर्थ वाणी का प्रयोग करते हॆ।        अन्तःसमाधि से देखने योग्य उस विश्वकर्मा देव को मै स्तुति करता हूँ।        यस्तात् पूरा किचनं नैवज्ञातं यः सर्वमेतजनयत्यज्जस्त्रम् ।        प्रजापतिः स्वप्रजया समेतो ज्योतिस्वयं द्योतयते स एव।।28।।        जिस देव से पहले कुछ भी नहीं जिसने यह सब निरतंर प्रवाह से उत्पन्न किया।        वह प्रजापति विश्वकर्मा देव अपनी प्रजा के साथ वर्तमान हुआ अग्नि,        विद्युत और सूर्य इन तीनों ज्योतियों को चमकाता हैं।        प्राणादिमिः वोडशमिः कलाभिर्विभक्तरूपास्य विभाति शक्तिः।        अमुं शुभे कर्मणि योजयन्तं श्रीविश्वकर्माणमहं स्तवीमि ।।29।।        प्राण श्रद्धा आदि 16 कलाओं में विभक्त जिस देव की शक्ति प्रकट होती है।        शुभ कर्म में लगाने वाले उस विश्वकर्मा देव की मैं स्तुति करता हूँ।        आकारहीनोsप्यथ निर्विकारो गुणेः समेतापि स निर्गुणोस्ति।        कल्याणिनस्तस्य महेश्वरस्य कुर्वे प्रणामान् वहुशोsभिरामान् ।।30।।        यह देव निराकार तथा निर्विकार है। सगुण होकर भी निर्गुण है।        कल्याणकारी उस महान् ईश्वर विश्वकर्मा को मै. बहुत सुंदर प्रमाण करता हूँ।        स जीवमात्राय तदीयकर्म-फलोपभोगं क्रमंशः प्रदास्यन् ।        सृजन विसृष्टि बहाता विचित्र सम्राट स्वयं राजति विश्वकर्मा ।।31।।        वह विश्वकर्मा देव जीवमात्र के उसके कर्माफलानुसार क्रम से भोग देने के लिए इस विचित्र सृष्टि को बनाता है।        इसका स्वंय सम्रांट होकर विराजता है।        पर्याप्तकामस्य शिवस्य तस्य प्रेयान स्वभावोsयमिहाविरस्ति ।        एको बहु स्यामहमित्यमीप्यन् स्वललिया क्रीडति विश्वमध्ये ।।32।।        सब कामनाओं से पूर्ण उस शिव देव का यह प्रिय स्वभाव यहां प्रकट होता है कि वह अपनी लीला        से एक होता हुआ भी अनेक हो जाऊं यह सोचकर विश्व में क्रीडा करता है।        तस्योपचारात् तदपत्यामादौ शरीरधारी कुशलस्तपस्वी ।        शिल्पक्रियाकाण्डविशेषविज्ञः पुमानपि स्यादिह विश्वकर्मा ।।33।।        उस देव के उपलक्षण से उसको आदिम सतांन, कुशल, तपस्वी, शिल्पशास्त्र का विशेष विद्वान,        देहधारी पुरूष भी विश्वकर्मा कहाता है।        मन्त्रर्थदृश्वा स ऋषिः प्रसिद्धः पवित्रसस्कारविशेषयुक्तः।        धीमान् द्विजन्मा भुवि शिल्पिवंशप्रवर्तकः कीर्तिमितो महात्मा ।।34।।        पवित्र संस्कारों वाला वह विश्वकर्मा मनुष्य प्रसिद्ध मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषि हुआ है।        जो महात्मा धीमान् ब्राह्मण होकर शिल्पियों के वशं का प्रर्वतक माना गया।        त्वष्टा सुधन्वा मय आर्यशिल्पी ब्रह्माथ विष्णुः स सदाशिवोस्ति ।        तस्यैव नामानि शुभानि यानि स्मरामि, पुण्यार्थमंह हि तानि ।।35।।        वही विश्वकर्मा त्वष्टा, सुधन्वा, मय, आदि शिल्पी, ब्रह्म,विष्णु,        सदाशिव आदि शुभ नाम वाला है, मैं पुण्यार्थ उसके नामों का स्मरण करता हूँ।        यद् दृश्यते किंचिदपि त्रिलोक्यांचित्रं विचिंत्र च पदार्थजातम् ।        विमानयन्त्राचंल वा तद् विश्वकर्मेव ससजं सर्वम् ।।36।।        तीनों लोकों में जो कुछ भी विमान यत्रं आदि चल अचल, चित्र, विचित्र पदार्थ नजर आता है        वह सब विश्वकर्मा का ही बनाया हुआ है।        ततोधित्रज्ञे स्थकास्कर्म यानादिनिर्माणकला च साक्षात् ।        आयार्यभावे भजमान आस्ते स्थापत्यशिल्पेपि स निर्विकल्पनम् ।।37।।        उसी विश्वकर्मा से काष्ठ शिल्पियों का काम उत्पन्न हुआ। यान आदि के बनाने की कला भी साक्षात उसी से पैदा हुई।        वहीं असांदिग्धरूप रूप से स्थापत्य एवं गृहनिर्माणदि कला का भी आचार्य है।        मतः पुरो देवपुरोहितोsसौ बृहस्पतिः सूर्य उदह्रतश्च।        धीमान् महान् वक्तृतमोर्ध्यळआस्त्रेन्यरूपि विश्वस्य च सूत्रधारः ।।38।।        वह विश्वकर्मा पहला देवों का पुरोहित है वही बृहस्पति, सूर्यहै। धीमाने अर्थशास्त्र का महान् वक्ता और        विश्व का सूत्रधार शिल्पी भी वही है।        ऋषिस्वंय सप्तसु मुख्य उक्तः स्वयं वसिष्ठदिषु पुण्यवत्यु ।        प्रंशंसयामास च शिल्पिवर्ग जगत्प्रभुः सेवकधर्मक्त्वत ।।39।।        वह वसिष्ठदि सातों पुण्यवान् ऋषियों में मुख्य है। सेवक धर्म का महत्व देने वाले उसने जगत् में        शिल्पियों के कार्य को प्रससिंत बनाया है।        दैवज्ञमन्वादिभिरात्मभूतैर्विशुद्धचितैः स्वसुतैरूदातेः।        अनारतं लोकहिताय भूप। प्रावीवृतद् वसंमसौ निजाशम् ।।40।।        दैवज्ञ, मनु आदि अपने शुद्ध चित्त उदात्त पुत्रों द्वारा उस विश्वकर्मा ने विरतंर लोक हित        के लिए अपने वशं को चलाया।
        तदाननै पन्चभिरेव जाता द्विजातयः पशञ्ञ च सत्नगाद्या ।        शिल्पक्रियामायां परमप्रवीण गतोघ्हभूनाख्यऋषि प्रसिद्धिम् ।।41।।        उस विश्वकर्मा के पांच मुखों से पांच सल्ग आदि द्विज पैदा हुए। जिन्होनें शिल्पक्रिया में        अतिनिपुण होकर सब प्रकार से लोकहित किया।        लोहस्य कर्माकृत सत्नगस्तु सनातनश्चातत दारूकर्म ।        स्वर्णादिनिर्माणकलाप्रवीणो गतोघ्हभूनाख्याऋषि प्रसिद्धिम् ।।42।।        विश्वकर्मा के पांच पुत्र सनग न लोहें का काम, सनातन ने लकडीं का काम किया।        अहभून ऋषि सोने चांदी बनाने की कला में प्रसिद्ध हुए।        प्रत्नस्तु विश्वस्य हिते रतोघ्भूत समस्तशिल्पाधिपतिर्मनीषी ।        सुपर्णसज्ञंश्च महर्षिरासीत् स्वामी किरीटादिविभूषणानाम् ।।43।।        विश्वकर्मा के पुत्र प्रत्न ने विश्व कल्याण के लिए सभी शिल्पों को आधिपत्य स्वीकार किया।        सुपर्ण ऋर्षि किरीट आदि घडने का स्वामी बना।