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दान क्यों ?

दान का महत्व

अक्सर जीवन मे दान का महत्व है,माता अपने ममत्व को बच्चे के लिये दान करती है पिता अपने पुरुषार्थ के लिये अपने जीवन के की जाने वाली मेहनत का दान अपने बच्चे के लिये करता है,भाई अपने बाहुबल को दान करता है,बहिन अपने तरीके से सम्बन्ध बनाकर और समाज बनाकर अपने भाई के क्षेत्र का दान करती है,भाई अपनी बहिन के लिये आजीवन अपनी सहायता और शक्ति का दान करता है,बडा होकर बच्चा अपने माता पिता के वृद्ध होने पर उनकी देख रेख और भोजन का दान करता है,पत्नी पति को रति सुख प्रदान करती है,अपने द्वारा पति के लिये निस्वार्थ भाव से भोजन और पति सुख और आयु वृद्धि के प्रति पूजा पाठ करती है आगे के लिये वंश चलाने के प्रति अपनी कामना को समर्पित करती है। बहू अपने स्वार्थ को त्याग कर पति के कुल मे शांति और सम्पन्नता बनाने के प्रति अपने ज्ञान का दान करती है,दामाद अपने बाहुबल और सम्मान के द्वारा अपने ससुराली जनो का मान बढाने में अपनी शक्ति का दान करता है। कुछ लोग अपने व्यवसाय स्थान पर बैठ कर रास्ता बताकर अपने ज्ञान का दान करते है,कुछ लोग प्यासों के लिये प्याऊ खुलवाकर धर्मशाला बनवा कर लोगों के जीवन को सर्दी गर्मी से बचाने के लिये अपने बाहुबल का दान करते है। हकीकत मे देखा जाये तो यह शरीर ही दान से और दान के लिये बना है। एक व्यक्ति एक लाख रोजाना कमा रहा है लेकिन वह अपने लिये मात्र कुछ सौ रुपया में अपना पेट भर लेता है,और बाकी का धन वह अपने परिवार के लिये जमा करता है कि वह अपनी संतान के लिये इतना इकट्ठा कर दे कि उसके बाद उसकी संतान किसी की मोहताज नही रहे और वह सुखी रहे। लेकिन इस सुखी रखने के कारणों में मोह पैदा हो जाता है,यह मोह करना ही उसकी भूल है और इसी मोह के चक्कर में शरीर से की जाने वाली मेहनत दान स्वरूप न होकर मोह के जंजाल में चली जाती है। माता ने अगर पुत्र को जन्म देने के बाद यह सोच लिया कि उसका पुत्र बडा होकर उसकी पालना करेगा,उसकी सेवा करेगा,उसके लिये बहू लाकर उसकी आज्ञा का पालन करवायेगा तो माता का यह मोह उस समय बेकार हो जाता है जब लडका बडा होता है और अपनी मर्जी से शादी विवाह करने के बाद अपना घर अलग बसा लेता है माता अपने पुत्र के सहारे रहने के कारण और अपने लिये कुछ न बचाकर केवल पुत्र के लिये ही सब कुछ करने के बाद जब पुत्र पास से निकल जाता है और पत्नी के लिये सोचने लगता है तो माता का वह पालन पोषण से लेकर पढाने लिखाने और सभी साधन पुत्र के लिये जुटाने के प्रति बेकार हो जाता है। उस समय माता और पुत्र के बीच तनातनी चलती है और बहू जो दूसरे घर से आयी है उसके अन्दर यह भावना घर कर जाती है कि माँ केवल बेटे से धन का मोह करती है और बेटा माँ के कहे पर चलता है उसकी बात को नही सुनता है,इस प्रकार से तकरार बढ कर बडी तकरार बन जाती है,बेटा न तो माँ को छोड सकता है और न ही पत्नी को छोड सकता है,पत्नी के पास दो रास्ते होते है एक अपने माता पिता का और दूसरा कानून का,लेकिन माता के पास एक ही रास्ता होता है वह होता है अपने पुत्र का,बहू या तो अपने माता पिता से प्रताणना दिलवाती है अथवा कानून का सहारा लेकर माता पिता को बजाय भोजन और सहायता देने के जेल की हवा दिलवाने का काम करती है,बेटे के सामने दो ही रास्ते होते है या तो वह बहू को लेकर अलग रहना शुरु कर दे या बहू को तलाक देकर फ़िर से माता पिता के कहने में चलने लगे,उसे दूसरा साधन ही सही लगता है,लेकिन इन सब के पीछे जो था वह माता का लोभ ही था,अगर माता ने पिता के साथ मिलकर पहले से ही पुत्र की शिक्षा के बाद उसे जीविका के साधन देकर अलग कर दिया होता,और बहू को पहले से ही अलग करने का मानस बना लिया होता तो जेल जाने की या प्रताणित होने की समस्या ही नही आती,यह सब मोह के कारण ही माना जा सकता है,जब पालने पोषणे मे कोई मोह नही था,अगर उस समय मोह होता तो डाक्टर के पास बच्चे के बीमार होने के बाद नही ले जाया गया होता,शिक्षा के स्थानों में एडमिसन नही करवाया गया होता,सर्दी गर्मी के समय में उसे कपडे और रहने के स्थान का बंदोबस्त भी नही करवाया गया होता,लेकिन जैसे ही वह कमाने लायक हुआ और माता के अन्दर मोह ने जन्म ले लिया।

दान में मोह और अहम का त्याग

दान करने के लिये मोह का त्याग जरूरी है,मोह के करने से भोजन का दान नही किया जा सकता है,भोजन है खूब सारा रखा है लेकिन दान करने का जी तभी नही करेगा जब यह मोह पैदा हो जायेगा कि कल भी इस भोजन का इस्तेमाल करना है,लेकिन जब वह रखा हुआ भोजन किसी जीव जन्तु या मौसम की खराबी से बेकार हो गया तो मन में उस खराब भोजन को फ़ेंकते समय संताप हुआ,यह संताप तो नही होता जब उस भोजन को किसी मांगने वाले व्यक्ति को आराम से खिला दिया होता और वह भोजन से तृप्त हुआ व्यक्ति कुछ और भी देकर जाता जो संताप से कई गुना बढ कर होता और आगे के अच्छे बुरे समय में काम भी आता। दान का रूप अलग अलग समय में अलग अलग रूप धारण कर लेता है। दान के लिये मांगने वाले को छोटा और देने वाले को कभी बडा नही समझना चाहिये। यह कथा वामन अवतार से शिक्षा देती है। पति को पत्नी के लिये दिया जाने वाला वचन जो दान का ही रूप ले लेता है,कभी भूलना नही चाहिये,समय के बदलने पर दिया हुआ वचन कितना बडा रूप ले सकता है इसका उदाहरण रामचरित मानस में दसरथ और कैकेई की कथा से समझी जा सकती है। वामन अवतार में भगवान ने वावन अंगुल के रूप में पूरी पृथ्वी आकाश पाताल सभी तीन पग में नाप लिये थे और राजा बलि के ऊपर आधे पग का कर्जा ही छोड दिया था उसी प्रकार से राजा दसरथ के द्वारा कैकेई को दिये गये दो वचन श्रीरामचन्द्र जी के लिये चौदह वर्ष का वनवास का कारण बने थे,और पुत्र वियोग में राजा दसरथ की मृत्यु का कारण बने थे। इनके अन्दर भी मोह का रूप केवल अहम के रूप में था,अगर राजा बलि को यह अहम नही होता कि यह वावन अंगुल का पंडित क्या बडा मांग लेगा,तो कर्जाई नही बनते,और राजा दसरथ का वह अहम कि जब चाहेंगे तभी दो वचनों की पूर्ति कर देंगे,इसमे क्या बडा है तो इतनी बडी हानि नही भुगतनी पडती।

दान के तीन प्रकार शरीर,धन और विद्या

अक्सर व्यक्ति तीन तरह के दान के लिये हमेशा बाध्य होता है,शरीर दान,धन धान और विद्या दान। शरीर का दान पुरुष और स्त्री दोनो मिलकर संतान पैदा करने के द्वारा देते है,और वह शरीर संसार हित के लिये होता है या अहित के लिये यह उनके पूर्व कर्मो और संसार की आवश्यकता के अनुसार होता है। धन का दान पुरुष और स्त्री पहले अपने परिवार के पोषण और संसार हित के कामो के लिये दान करते है वह भी पुरुष और स्त्री के अपने अपने भावों के अनुसार माना जाता है। विद्या के दान के लिये कभी बडे या छोटे का भेद नही माना जाता है,जैसे किसी काम को करने के लिये जब वह काम समझ में नही आता है तो एक छोटा बच्चा अपनी बुद्धि से उस काम को करने के लिये अपना मत देता है वह किसी बडे से बडे महारथी और ज्ञानी आदमी के दिमाग से परे बात मानी जा सकती है। जिस प्रकार से बालक ध्रुव ने अपनी माता के प्रश्न के उत्तर के अनुसार जगत पिता को ही अपना पिता माना था और वन में जाकर तपस्या करने के लिये पांच साल की उम्र को चुना था और कम से कम उम्र में उन्होने जगत पिता के दर्शन प्राप्त कर लिये थे,भक्त प्रहलाद ने अपने पिता के ज्ञान को तुच्छ समझा था और श्री हरि के चरणों में अपना मन लगाकर बडी से बडी आफ़तों से अपने को बचा लिया था।

शरीर दान का कारकत्व

शरीर दान के लिये स्त्री और पुरुष को समाज के अनुसार एक श्रंखला बनाकर चलना पडता है। उस श्रंखला के अन्दर ही शादी विवाह रीति व्यवहार और सामाजिक नियमों को माना जाता है। अगर इन बातों को नही माना जाता है तो मनुष्य और पशु के अन्दर भेद ही क्या रह जाता है। रीति नीति के अनुसार दिया गया शरीर दान दिये गये दान का बडा रूप होता है और समय समय पर अपने नाम और कार्य को इतिहास में लिख जाता है। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री की तरफ़ आकर्षित तभी होता है जब उसके अन्दर काम वासना का संचार होता है। लेकिन वह अगर सामाजिक नियमों के अनुसार अपनी कामवासना को शांत करने के लिये उपयुक्त स्त्री को नही प्राप्त करता है तो वह दिया गया शरीर दान या तो कूडे के ढेर मे जाता है अथवा वह अगर किसी प्रकार से बच भी गया तो समाज और संसार के लिये कभी भी अहित का कारण बन जाता है। शरीर दान के लिये सामाजिक नियमों के लिये कथा कही जाती है कि शक संवत को विक्रमी सम्वत के बाद का माना जाता है,विक्रमी सम्वत के बाद ज्योतिष शास्त्र में प्रवीण एक ज्योतिषी को यह पता लगा कि अमुक समय में स्त्री के साथ मैथुन करने के बाद अगर संतान की प्राप्ति होती है तो वह संसार में अपना नाम लेकर हमेशा के लिये चलती रहेगी। लेकिन जब उस ज्योतिषी ने देखा कि समय उसी रात का है और उसकी पत्नी किसी नदी के पार रहती है,वह जल्दी जल्दी नदी पार करने के लिये केवट के पास गया,केवट ने देखा कोई बहुत ही जरूरी बात है और उस बात को जानने के लिये जब केवट ने अपनी जिज्ञासा को जाहिर किया तो ज्योतिषी जी ने अपनी बात को उससे बता दिया। केवट चालाक था उसने सोचा कि जब इतना महत्व पूर्ण है और वह अपनी नाव को चलाकर और नाव से किये जाने वाले कार्य से संसार में नाम नही चला सकता है तो उसे अपनी संतान को इस काम के लिये प्रयोग में लाना चाहिये। उस केवट के जवान और खूबशूरत कन्या थी उसने ज्योतिषी जी के सामने प्रस्ताव रख दिया कि रात का अन्धेरा हो गया है और वह रात में नाव को नदी में नही ले जायेगा,अगर यह मुहूर्त ज्योतिषी जी को प्रयोग में लेना है तो उसकी कन्या से गंधर्व विवाह करने के बाद उस मुहूर्त को प्रयोग में ला सकते है,ज्योतिषी जी तैयार हो गये और उसी रात को ज्योतिषी जी ने उस केवट की कन्या से गंधर्व विवाह करने के बाद गर्भाधान को पूर्ण किया। उस कन्या से जो पुत्र प्राप्त हुआ वही शक नाम से जाना जाता है। यही कथा रामायण में मकरध्वज के बारे में कही जाती है,जब हनुमानजी लंका को जलाकर पसीने से तर बतर समुद्र में कूदे तो उनके पसीने को एक मछली निगल गयी,उस ब्रह्मचारी पसीने के अन्दर वीर्य के कण थे,उन्ही कणों से मछली के जो संतान हुयी वही मकरध्वज के रूप में हुयी और उसे पाताल के राजा अहिरावण के द्वारपाल की सेवा का अवसर मिला। राम लक्षमण को जब अहिरावण बलि देने के लिये पाताल लोक ले गया तो हनुमानजी को पहले द्वारपाल के रूप में तैनात मकरध्वज से ही मुकाबला करना पडा,बाद में पता लगा कि वह उन्ही की संतान थे। शरीर दान के लिये समाज का नियम बहुत ही महत्व रखता है। जैसे एक कारीगर किसी कला को जानता है और आगे आने वाले बच्चे उस कारीगर की कला को अपने परिवार और घर के अन्दर ही बचपन से देखते रहते है तो वे उस कारीगर की कला से वाकिफ़ होते जाते है। उन बच्चों को कहीं अन्य स्थान पर जाकर शिक्षा नही लेनी पडती और वे उसी कला को और अधिक विकास करने के बाद आगे से आगे प्रयोग में लाते जाते है तो उस कला का विकास अपने आप होता चला जाता है। उसी प्रकार से समाज और वर्ण व्यवस्था के अनुसार जब शादी विवाह किया जाता है तो होने वाले बच्चे उसी समाज के अन्दर अपने को अपने आप ढालते चले जाते है,और जो कार्य या व्यवसाय अथवा संस्कार उन्हे मिलते है उन्ही के अनुसार वे अपने को बना लेते है। लेकिन शरीर मोह और रूप आदि के लोभ में जब समाज से अलग किसी प्रकार से शादी सम्बन्ध किया जाता है,तो कामुकता का अन्त होने के बाद जब रूप और शरीर मोह का भ्रम टूटता है तो अलग समाज में किये जाने वाले रिस्ते टूटते है और अगर उन रिस्तों के अन्दर कोई संतान हो गयी है तो वह अपने पिता और माता के अनुसार ही अपने को बनाना शुरु करेगी। इस प्रकार से वह पैदा होने वाली संतान न तो इधर की रही और ना ही उधर की,इसी प्रकार की संतान को भटकाव का रास्ता मिलता है और वह दर दर की ठोकरें खाने के लिये मजबूर हो जाती है अथवा उसे सामाजिक नियमों से नफ़रत होने के कारण वह समाज से अपने पुराने हिसाब को चुकाने के लिये आतंकवादी जैसी नीतियों में जाकर मनुष्य और समाज का दर्द नही समझने के कारण हत्या जैसे जघन्य अपराध करना शुरु कर देती है। अक्सर यह बात उन परिवारों में भी मिलती है जहां स्त्रियां आधुनिकता के चक्कर में अपने को क्षणिक सुख के लिये अन्य मर्दों की कामुकता का शिकार हो जाती है और उनसे पैदा होने वाले बच्चे समाज और परिवार को ताक में रखकर घर और परिवार के ही लोगों के लिये आफ़त का कारण बन जाते है,अक्सर इस प्रकार के बच्चे खून का सम्बन्ध नही होने के कारण अपने परिवार के सदस्यों के प्रति दया या प्रेम भाव नही रख पाते है और उसी प्रकार से सोचना चालू कर देते है जैसा कि उनके कामुक पिता का सोचना होता था।

सबसे बडा दान दया है

मनुष्य के अन्दर दया का दान सबसे बडा दान माना जाता है,कहा भी गया है कि दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान। जिसके अन्दर दया होती है वह रास्ते चलते को भी सहारा देना जानता है और जो सहारा दिया जाता है वह भी एक तरह का महादान ही होता है। वह दया चाहे मनुष्य के प्रति हो या जानवर अथवा जीव जन्तु के लिये वह दया ही सबसे बडा दान माना जाता है। भगवान से भी प्रार्थना की जाती है कि "दया कर दान भक्ति का हमे परमात्मा देना",दया के लिये किसी को खोजना नही पडता कि हमे दया किसके साथ करनी है। रास्ते में या घर के अन्दर दया का दान करने के लिये हजारों दया को प्राप्त करने वाले लोग मिल जायेंगे,ऊपर बता कर आया हूँ कि दया माता बच्चे के साथ भी करती है। शेरनी सभी जीवों को मारने के लिये मानी जाती है और अपने बच्चे को वह नही मारती। बिल्ली अपने बच्चे को स्थान बदलने के समय बडे ही मुलायम तरीके से दांतों के बीच अपने बच्चे को दबाती है और स्थान बदल देती है। मादा बिच्छू अपने बच्चों को अपना शरीर ही दान कर देती है। मनुष्य अपने बच्चे को पालने पोषने से लेकर बडा होने तक उस पर दया का भाव ही रखता है। बच्चे को ऊपर से गिरने से लेकर लाखों कारण बनते रहते है जब बच्चा अपने विवेक का ख्याल नही रख पाता है और जोखिम में रहता है तो परिवार के सदस्य उसे बचाने के लिये हर समय ख्याल रखते है। जब वह बच्चा समाज के सामने आता है तो समाज वाले लोग उसे बुरी आदतों से बचने के लिये निगाह रखते है,लेकिन कभी कभी जानबूझ कर वह बच्चा गल्ती करता है तो उसे सजा दिलाने के नाम पर पुलिस या घर वालों की भी सहायता ली जाती है। दया का रूप यात्रा करते वक्त किसी स्थान पर निवास करते वक्त या परिवार में रहने के उपरान्त मिलता है। समाज में दया के नाम पर समाज के व्यक्ति को नौकरी आदि के मामले में दया करने पर लोग राजनीति भी करने लगते है जैसे आजकर जाटों के आरक्षण के मामले में दया का भाव समझ में आ रहा है। राजनीति के अन्दर दया का भाव दिखावे के रूप में भी मिलता है जैसे बावरी मस्जिद को हटाकर राम मन्दिर या राम मन्दिर को हटाकर बावरी मस्जिद के मामले में अलग अलग समुदायों के नेताओं की दया दिखाने का मतलब साफ़ सामने है कि एक कहता है बनने नही देंगे और दूसरा कहता है बनाकर रहेंगे। दया दिखावे और स्वार्थ के लिये भी की जाती है,जैसे किसी व्यक्ति को पहिनने के लिये कपडा दिया जाता है और बाद में जब भी कोई सामाजिक बात होती है या सामाजिक व्यक्ति सामने होता है तो कह दिया जाता है कि यह कपडा तो हमीने इसे पहिनने के लिये दिया है। इस प्रकार की दया दिखावा होती है,और उस दया का कोई मूल्य भी नही होता है अगर किसी को खाना खिला दिया है तो सामने वाले को महसूस भी नही हो कि खिलाने वाला खुद का आदमी था या कोई पराया,अगर उसने महसूर कर लिया कि खिलाने के बाद उस दया का ढिंढोरा पीटा जायेगा तो उसकी अन्तरात्मा उस खाने के बदले में दिये जाने वाले आशीर्वाद की जगह श्राप और देना चालू कर देगी।दरवाजे पर मांगने वाले के साथ अधिक दया करने का मतलब है कि अपने को लुटा बैठना,अधिकतर लोगों ने भीख मांगने का धन्धा बना लिया है जब उन्हे कोई मोटा आसामी दिखाई देता है तो तरह तरह के कारण बनाकर दया का पात्र बन जाते है और मन चाहा लेने के बाद उसे शराब कबाब और अन्य तरफ़ के पाप कर्म में खर्च करते है। इस प्रकार से दिया जाने वाला दान दया का दान तो देने वाले के लिये माना जाता ह लेकिन जिसने दया के भाव को प्राप्त किया था उसके अन्दर चालाकी का भाव आने से दया और चालाकी दोनो मिलकर दान देने वाले और लेने वाले के लिये अहित का कारण ही बन गयी। जो दान दिया गया था उसके बाद उस दान का प्रयोग कोई अपने घर खर्चे के लिये करता है तो ठीक है,लेकिन कब ठीक है जब वह खुद कमाने से असमर्थ है,उसे किसी प्रकार की विद्या नही आती है वह शरीर से अपाहिज है,वह किसी भी क्षेत्र में विकास नही कर सकता है तो दया करना बेकार की बात नही है। लेकिन दया करने के उपरान्त अगर कोई व्यक्ति समर्थ होते हुये भी कमाने की इच्छा नही करता है दिमागी अथवा शारीरिक श्रम से बचना चाहता है और उसे दया के नाम से कमाने के बाद फ़िजूल खर्च करने की आदत हो गयी है तो वह दया नही मिलने के बाद अन्य चालाकियों से कमाने की सोचेगा। अक्सर दया के नाम से मिलने वाले धन को लोग बडी बुरी तरह से खर्च करते है। यह सत्य नियम है कि कमाने और खर्च करने में जमीन आसमान का अन्तर होता है कमाना तो हर कोई जानता है लेकिन खर्च करना हर किसी को पता नही होता है। कमाने के अनुसार अगर खर्च किया जाये किसी प्रकार के अहम में आकर अगर खर्च किया जाता है तो कमाना और मेहनत करना भी बेकार ही माना जाता है। हर मनुष्य का नियम होता है कि वह अगर ईश्वर की कृपा से संसार में अवतरित हुआ है तो वह मानव कल्याण की भावना को अपने मन रखकर दया करे। तीर्थ स्थानों में किया जाने वाला तभी समर्थ है जब उस स्थान में रहने वाले लोग जो केवल दूसरों की दया पर ही निर्भर है उनके लिये दान का रूप समझ कर दान किया जाये। अक्सर बेकार का दान बेकार मे ही चला जाता है। इस बात को और अच्छी तरीके से समझने के लिये भारत के प्रसिद्ध धाम रामेश्वरम धाम की ही बात ले लीजिये,वह धाम केवल आने वाले तीर्थ यात्रियों की कृपा पर ही निर्भर है,अगर कोई तीर्थ यात्री नही आये तो वहां के लोग भूखों मरने की कगार पर आजायें,लाखों लोगों का व्यवसाय आने वाले तीर्थ यात्रियों को रहना खाना तथा वहां की प्रसिद्ध वस्तुओं को बेचना है,लेकिन जिसके अन्दर बुद्धि का विकास है वह वहाँ पर नही रहता है और अपने अनुसार अपनी औकात तथा विद्या को बढाता चला जाता है,डाक्टर कलाम साहब भी वही के पैदा होने वाले महापुरुषों में एक माने जाते है,उन्होने अपनी विद्या का प्रयोग करना सीख लिया और भारत जैसे राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर आसीन भी हो गये। जब कि उनके परिवार वाले आज भी समुद्र से निकलने वाले सीप शंख और अन्य सामान का व्यापार करने के बाद अपनी जीविका चला रहे है। उनके घर के पास में आज भी झोपडी नुमा बने हुये मकान उनके परिवार की स्थित को बता रहे है। इस प्रकार से दया का रूप अपने विकास के लिये अगर किया जाता है और अपने अनुसार ही किसी गरीब को पालने का दिमाग प्रयोग में लाया जाता है तो वह दया सच्ची दया है,इस दया के अन्दर एक कारण और बनता है,किसी को शिक्षा का दान करना,यह भी एक बहुत बडा दान है और दया के अन्दर ही इसकी औकात है। संसार में दया के कारण चलने वाली एन जी ओ आदि का रूप भी समझा जा सकता है। जो संस्थायें अपना काम करने के बाद लोगों को आगे बढाने के लिये अपने तन मन और धन से आगे चलती है वे अपना नाम करती चली जाती है लेकिन लोभ में आने के बाद और उन संस्थाओं की बदौलत अगर धन कमाने का भाव मन के अन्दर आया तो वह दया के भाव से अलग हो जाता है। उस भाव से अलग जो प्रभाव होता है वह अधिक धन कमाने की लालसा और उल्टे सीधे कारण बनाकर और संख्यायों का जोड ही रह जाता है जो भी काम लोभ के कारण किये जाते है वे सभी कागजों में तो किये जाते है लेकिन धरातल पर कुछ भी नही हुआ होता है।कुछ संस्थायें इस भाव को और भी अलग अलग तरीके से धन कमाने के लिये प्रयोग मे लाती है,जैसे कि एक धनवान को अपने सफ़ेद धन को काले धन मे परिवर्तित करना है तो वह पहले इस प्रकार की संस्थाओं को दान में मोटी रकम देदेगी और बाद में उस संस्था से लिया जाने वाला दान वापस लेलेगी,इस प्रकार से जो टेक्स आदि में बचत होती है वह संस्था के लिये बना रहता है,इस तरह से सरकार और जनता के साथ धोखा ही माना जा सकता है और इस प्रकार की संस्थायें जहां भी चलती है उनका उद्देश्य मात्र दया के नाम पर गोरख धन्धे करना ही माना जा सकता है,उन्होने अपने प्लानर नौकरी पर रखे होते है और उन प्लानर और धन का लेखा जोखा तैयार करने वाले चार्टेड एकाउन्टेंट की बदौलत वे अपना काम करते रहते है। इस प्रकार की दया से भी बचना चाहिये,और जो भी काम करना है अगर बहुत बडे रूप में करना है तो अपने द्वारा ही किया जाये और छोटे रूप में करना है तो भी अपने द्वारा ही किया जाये वही दया का दान सबसे उत्तम माना जा सकता है,अगर शिक्षण संस्थाओं का विकास करना है तो अपने नाम का कभी उपयोग नही करना चाहिये,जैसा कि अक्सर लोग अपने दादा पिता माता आदि के नाम से संस्था को खडा कर देते है और उसे चलाकर नाम कमाने की कोशिश करते है यह संसार विचित्र है यहां एक प्रकृति के लोग नही है,कभी कोई सहारा लेने के नाम पर आकर गिडगिडायेगा और सहारा मिलने के बाद वह खुद को शेर की भांति बनाकर लिये गये दान को बरबाद करने के अलावा उस संस्था को भी गाली देगा। जिस भाव में किसी का स्वार्थ आकर टकरा जाये उस भाव में किया जाने वाला दान या दया बेकार ही मानी जा सकती है। जैसे किसी ने अपने गन्तव्य के लिये रास्ता पूंछा,और बताने के बदले मे अगर कोई धन को देता है तो वह दया या दान का रूप नही होता है। दान के रूप में किसी को गन्तब्य का बताया जाने वाला रास्ता भी दान का ही रूप हो जाता है। अक्सर रोजाना किसी को किसी न किसी प्रकार की समस्या मिल जाती है और वह समस्या से सुलझने का रास्ता किसी से पूंछता है,और बताने वाला उसे सही रास्ता बता देता है तो वह समस्या से छुटकारा प्राप्त कर लेता है,यह भी बताये गये उपाय और बताये जाने वाले व्यक्ति के लिये दान का ही रूप माना जाता है। आज के युग मे अगर इस बात को साधु सन्तो के लिये देखा जाता है तो जो सन्त दक्षिणा को लेकर और अपना शिष्य बनाकर अगर ज्ञान का दान देता है तो वह दया की श्रेणी में नही आता है वह एक मोह और अपने को उच्च दिखाने के अहम में शामिल हो जाता है। दिया गया रास्ता और दिया गया ज्ञान अगर दिये जाने वाले व्यक्ति की जानपहिचान की सीमा में आजाता है तो भी दया और दान की श्रेणी में नही आ सकता है। जैसे एक पुत्र अपने पिता से कुछ जानना चाहता है तो पिता के द्वारा बताया गया उत्तर दया या दान की श्रेणी में नही आयेगा,यहां अपनत्व की भावना में आकर और मोह के द्वारा ज्ञान को दिया माना जायेगा। लेकिन वही बच्चा अगर रास्ता चलते किसी व्यक्ति से पूंछता है और वह व्यक्ति उच बच्चे को नही जानता है तो वह दिया गया ज्ञान और दया का भाव दान की श्रेणी में शामिल हो जायेगा। किसी सडक पर जाने के लिये अगर दो रास्तों के बीच में एक साइन बोर्ड को लगा दिया गया है और उस पर सही रास्ते पर जाने का कथन लिखा है तो वह बोर्ड जिसने लगवाया है उसके लिये दान का साधन माना जायेगा,लेकिन अगर उसी बोर्ड को इस प्रकार का लगवाया गया है कि उसके अन्दर पैसे डालकर रास्ते का ज्ञान लिया जाये तो वह कमाने का साधन माना जायेगा। अक्सर कई संस्थायें अपने अपने अनुसार लोगों की चिकित्सा के लिये अपने अपने अनुसार केम्प लगाती है वहां पर साधारण जनता के लिये चैकिंग और दवाइयों का वितरण निशुल्क किया जाता है,लेकिन अगर उस संस्थाने अपने नाम का प्रचार जोर शोर से किया है और अपने नाम के साथ डाक्टरों के नाम और वितरित की जाने वाली दवाइयों का लेखा जोखा सबको सुनाया है तो वह किया जाने वाला सेवा का भाव नाम और अपना अहम प्रकट करने का तरीका माना जायेगा,इसे प्रतिस्पर्धा का रूप भी दिया जा सकता है कि अमुक संस्था ने इतना धन इस चिकित्सा के लिये खर्च किया था जो उस संस्था ने इतना धन खर्च किया है। यही बात अक्सर किये जाने वाले भंडारे के लिये भी मानी जा सकती है,कि अमुक आदमी ने अमुक स्थान में इतने लोगों को भोजन करवाया,यह बात उस आदमी के लिये दान में नही बल्कि अहम की श्रेंणी मे शामिल हो जायेगी,लेकिन वही आदमी अगर अपने को दिखावा से दूर रखने के बाद भोजन करवाता है तो वह दान और दया की श्रेणी मे गिना जायेगा।

दया धर्म का मूल है पाल मूल अभिमान

जीव जन्तु और जानवरों के अलावा मनुष्य के लिये जो उत्तम दान की और दया के कारण है वे दो प्रकार के माने जाते है,एक सर्वोत्तम और दूसरे अधम। अगर संसार में भोजन और पानी नही है तो संसार का टिक पाना असम्भव है। भोजन और पानी के मिलने से कोई भी जीव जन्तु और मनुष्य विकट से विकट परिस्थिति में जिन्दा रह सकता है। इन दोनो के नही मिलने से कितनी ही धन दौलत और माया हो कोई नही टिक सकता है। दया के लिये स्त्री और जीवों के साथ गाय दया की हमेशा पात्र हैं। इन कारकों को ध्यान में रखकर किया जाने वाला दान और दया बडे ही काम की होती है। भोजन और पानी के साधनों का दान किसी भी संस्था के द्वारा किया जाता है तो वह दान सर्वश्रेष्ठ श्रेणी का माना जाता है। स्त्री और गाय के ऊपर की जाने वाली दया हमेशा पुण्य को देने वाली होती है। स्त्री और गाय को ही क्यों दया के लिये माना जाता है तो विद्वजनों को समझना चाहिये कि स्त्री कितनी ही निरंकुश हो उसके अन्दर हमेशा ममता की भावना रहेगी,समाज कितना ही उसके साथ अनाचार करे वह अपने भावुकता के बल पर जिन्दा रहने की क्षमता रखती है,जब भी काम आती है तो केवल सन्तान पालन पोषण और अपने स्वजनों की रक्षा के लिये मानी जाती है। एक डायन भी अपने बच्चे को संभाल कर रखती है इस कहावत का अर्थ तभी माना जा सकता है जब डायन के साथ भी ममत्व का व्यवहार बनाकर रखा जाये। गाय को दया की श्रेणी में पुराने समय से केवल इसलिये ही माना जा सकता है कि उसे कुछ भी खाने को दो लेकिन वह देगी दूध ही,वह कभी अपने बच्चे के पास किसी अनहोनी को तब तक नही आने देगी जब तक उसकी जान रहेगी,जिस जीव के अन्दर इतनी अपने बच्चे के प्रति दया हो और वह अपनी दया के कारण अपने शरीर को भी समाप्त करने की इच्छा को रखे,उसके साथ क्रूरता करना पूरी तरह से अमानुषता की श्रेणी में आजाता है। स्त्री को भोग्या समझ कर और उसके साथ भोगों का सुख लेकर मैथुन और पंच मकार का प्रयोग करने के बाद कितना ही उसे प्रताणित किया जायेगा वह हमेशा अपने पति और परिवार के लिये समर्पित रहेगी। सामाजिक बन्धन हों या शरीर के बन्धन वह अपने भावनात्मक आवेश में सभी को समाप्त कर सकती है। लेकिन इस कलयुग के इन दोनो के साथ ही सबसे बडे अनाचार हो रहे है। हैती मे आये भूकम्प से संसार को अन्दाज लगा लेना चाहिये कि इस देश का मुख व्यापारिक सम्बन्ध अमेरिका से है और यहां पर संसार के सबसे अधिक एड के मरीज है,यहां के निवासियों का मुख्य खाना गाय का मांस है,और यहां रिस्ते नाम की चीज समझ में नही आती है,यहां तक कि भाई बहिन का रिस्ता भी अजीब ही होता है,मैथुन शराब और मारकाट के कारण यह देश गरीब देशों की श्रेणी में आता है,अक्समात भूकम्प आया और एक लाख से अधिक व्यक्तियों ने एक क्षण में ही अपनी जान गंवा दी,यहां तक कि राष्ट्रपति का महल भी पता नही लगा कि वह कहां गया। गाय और स्त्री को सबसे अधिक प्रताणना इसी देश में मिलती है। यहां तक कि इस देश में भूकम्प आने के बाद लोगों की जान की रक्षा तो करना दूर यहां पर सहायता के लिये जाने वाले लोगों को भी लूटा जाने लगा,जैसे ही भूकम्प आया दान की राशि इकट्ठा करने के लिये करोडों संस्थायें एक दम अपने अपने अनुसार सामने आने लगीं,यह केवल किये जाने वाले पापों का कारण है।