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पृथ्वी के बाद ?

करोडों साल से यह पृथ्वी सौर मंडल में अपना स्थान बनाये हुये है,जब हम समुद्र से पहाडों की ओर चलते है तो ऊंचाई बढती जाती है,और जितनी ऊंचाई पर हम चढते जाते है नई नई तरह की मिट्टी हमें मिलती चली जाती है। कहीं पर पत्थर ही मिलते है तो कहीं पर रेत ही मिलता है,कहीं पर चिकनी मिट्टी मिलती है तो कहीं पर दोमट मिट्टी मिलती है,इसी तरह से जब पृथ्वी की खुदाई की जाती है तो कई प्रकार की पर्तें नीचे मिलती चली जाती है,जैसा ऊपर की सतह पर देखने को मिलता है वैसा ही नीचे की तरफ़ जाने से मिलता चला जाता है। प्रश्न यह है कि आखिर यह भूमि अपनी पर्तों का शदियों से निर्माण करती चली आ रही है,कभी बडे बडे जीव और कभी नन्हे नन्हे जीव इस भूमि पर पैदा होते है,अपने अपने अनुसार भूमि की पर्त का निर्माण करते है और विलुप्त हो जाते है। मानव भी एक पर्त के निर्माण के लिये हजारों वर्षों से इस भूमि पर कार्यरत है,वह अपने अपने अनुसार भूमि को खोद रहा है,कहीं शहरों के नाम से कहीं गांवो के नाम से निर्माण करता आ रहा है,जिन्दा हो रहा है मर रहा है और जो भी उसने इस भूमि का बदलाव किया है वह अधूरा रह जाता है तो उसके वंशज आगे इसका बदलाव करने में जुट जाते हैं। इस बदलाव का जो महान लक्ष्य है वह भूमि को अन्य ग्रहों की तरह से अद्भुत शक्ति को एकत्रित करना है। जब यह भूमि अन्य ग्रहों की तरह से पूर्ण शक्ति को एकत्रित कर लेगी उसके बाद यह जैसे अन्य ग्रह पृथ्वी के बाद हैं,वैसे ही अपना आस्तित्व बना कर सृष्टि निर्माण से दूर हो जायेगी। जैसे पृथ्वी से पहले मंगल का आस्तित्व सृष्टि के लिये था,और पृथ्वी से बाद का ग्रह शुक्र सृष्टि के लिये शुक्र के बाद बुध इसके बाद कोई अन्य ग्रह सूर्य से बाहर आजायेगा। प्रत्येक ग्रह अपना अपना इतिहास दूसरे ग्रहों पर छोडता चला जाता है,इस इतिहास को मानसिकता से समझा जाता है,शनि कर्म का ग्रह था,उसके बाद गुरु ज्ञान का ग्रह था,मंगल हिम्मत और पराक्रम का ग्रह था,उसके बाद भूमि इन तीनो ग्रहों की मानसिकता से युक्त है,अभी वर्तमान में कर्म को हिम्मत और ज्ञान से किया जा सकता है आने वाले भविष्य के ग्रहों का रूप सृष्टि के अनुसार शुक्र और बुध के अनुरूप माना जाता है। इन दोनो ग्रहों की जो भविष्य के सृष्टि निर्माता माने जाते है,वे कर्म को ज्ञान और हिम्मत से करने के बाद भूमि तत्व को सकारात्मक रूप से मिलाने के बाद शुक्र जैसा सुन्दर और बुध जैसा कई प्रकार के अद्भुत समाजस्य वाले सिद्धान्तों को प्रकट करता है। एक के बाद एक ग्रह की दूरियां सूर्य से लगातार बढने का सिद्धान्त इस बात की पुष्टि करता है।

सूर्य से दूर जाने और ग्रहों का अपना अपना सिद्धांत पृथ्वी पर जमा करना

भूमि के अन्दर कही प्रकार की मिट्टियों की पर्त जो अलग अलग रंग की है,वे अपने अपने अनुसार आगे और पीछे के ग्रहों के सिद्धान्त को भी प्रतिपादित करती हैं। जैसे शनि की पर्त काले रंग की है,काली मिट्टी और काले रंग के पत्थर जमीन के नीचे केवल एक ही पर्त में मिलते है,जमीन की ऊपरी सतह पर जहां भी काले रंग की मिट्टी है वहां ह्यूमस (जीव जन्तुओं के सडने के बाद प्राप्त उपजाऊ तत्व) अधिक मात्रा में मिलता है। लेकिन जहां भी काली मिट्टी है वहां पानी की कमी अधिकतर मानी जाती है,लेकिन जहां पर पानी की मात्रा नदी या पहाडी क्षेत्र की तराइयों में मिलता है वहां यह जमीन अति से अधिक उपजाऊ भी है और पानी को अधिक समय तक अपने अन्दर समेट कर रखने वाली है,जब इस मिट्टी से पानी की मात्रा कम होती है और सूख जाती है तो अपने अन्दर पानी को अधिक से अधिक इकट्ठा करने के लिये दरारें पैदा कर देती है। जैसे ही बरसात होती है या अन्य स्तोत्रों से पानी की मात्रा इस प्रकार की जमीन को मिलती है वह अपनी दरारों के माध्यम से जमीन में पानी को इकट्ठा कर लेती है और जीव जन्तुओं को अधिक से अधिक पैदा करने के बाद उनके मरने के बाद ह्यूमस को और अधिक पैदा कर लेती है,यही ह्यूमस आगे की सृष्टि को अधिक से अधिक पैदा करने के लिये माना जाता है,जहाँ पर काली मिट्टी है और चिकनी है तथा पानी की मात्रा अधिक है उन भागों में अधिक से अधिक जनसंख्या भी है और जीव जन्तु भी अधिक मात्रा में है। जिस भाग में यह काली मिट्टी अधिक पायी जाती है वह भाग अधिक से अधिक कर्म सिद्धान्त पर निर्भर करता है। जीव जन्तु अपने अपने अनुसार कर्म कर रहे है,मनुष्य अपने अपने सिद्धान्त के अनुसार कर्म कर रहे है और अधिक से अधिक ह्यूमस को इकट्ठा कर रहे है। शनि सिद्धान्त के बाद हम उसके बाद के गुरु सिद्धान्त वाली पर्त के लिये पहिचान करते है तो जमीनी पर्तों के अन्दर पीली रंग की मिट्टी इस बात को समर्थित करती है,गुरु हवा का कारक है,और गुरु ज्ञान का कारक है,गुरु से ही अन्य ग्रहों के तत्वों को मिलाने के बाद आपसी सम्बन्ध और सम्बन्ध विच्छेद वाली बात जानी जाती है,जिन हिस्सों में पीली मिट्टी की ऊपरी सतह है उस पर्त पर निवास करने वाले दिमागी लोग होते है,वे धर्म और साहित्य पर अपना अपना विचार रखते है जीव जन्तु और मनुष्य के प्रति विश्वास रखते है,पीली मिट्टी चिकनी भी होती है और पथरीली भी होती है,इस मिट्टी का प्रभाव व्यक्ति के अन्दर मानसिकता में ज्ञान की सीमा को बढाता है,इस मिट्टी के अन्दर पानी को जमा करने की उतनी शक्ति नही होती है जितनी कि काली मिट्टी में होती है,इसलिये यह मिट्टी ह्यूमस को भी कम पैदा कर पाती है,जितना पानी इसे मिलता है यह या तो अपने खुरदुरे स्वभाव से उसे जमीन की निचली पर्तों को भेज देती है या फ़िर चिकनी होने पर बरसात के पानी को दूसरे क्षेत्रों में बहा देती है,जिस मिट्टी में काली और पीली मिट्टी का दोमट वाला अंश देखा जाता है वहां वनस्पति से अधिक जीव जन्तु का विकास अधिक हो जाता है,कारण वनस्पति को ज्ञान और बुद्धि से कोई मतलब नही है वह केवल सम्बन्ध और कर्म सिद्धान्त पर ही निर्भर है। मनुष्य और जीव जन्तु अपने अपने अनुसार नर और मादा जैसा सम्बन्ध बनाते है और अधिक से अधिक संतान पैदा करने के लिये माने जाते है। मंगल के सिद्धान्त वाली मिट्टी लाल रंग की मिलती है,इस प्रकार की मिट्टी अधिकतर पथरीली होती है और कहीं कहीं पर यह चिकनी भी मिलती है,इस मिट्टी के ऊपर वही सृष्टि पनपती है जो पूर्णत: या कम बेसी जीवाहार पर निर्भर होती है। माँस भक्षी लोग या जीव जन्तु इसी मिट्टी पर अधिक पाये जाते है। रूखी और सम्बन्ध हीन होने के कारण किसी से मनुष्य और जीव जन्तु में आपस में कोई मतलब नही होता है और जो भी कारण होते है वे स्वार्थ की पूर्ति और पीडा देने वाले कारणों के लिये ही माना जाता है,जैसे इस मिट्टी के अन्दर बिच्छू की उत्पत्ति अधिक होती है,और बिच्छू की आदत होती है कि वह पैदा होने पर पहला आहार अपनी माँ का ही करता है,उसके बाद वह दूसरे जीवों और तत्वों की तरफ़ अपना रुख करता है। उसी तरीके से सांप अपने अंडों को खुद ही खाने में विश्वास करता है। जो भी मनुष्य होते है गर्म और रूखी प्रकृति के कारण अपने ही घर वालों के साथ दगा करना और किसी भी कारण से उन्हे ही मारडालना आदि बातें देखी जा सकतीं है।

पृथ्वी की जगह लेने वाले ग्रहों का पृथ्वी पर मिलने वाले सिद्धान्त

इस प्रकृति को पृथ्वी के बाद के तीनों ग्रहों के रूप में जाना जाता है,इसके बाद जो ग्रह पृथ्वी की सृष्टि को अपने ऊपर धारण करने वाले है उनकी प्रकृति अभी इस पृथ्वी की पर्तों में नही पायी जाती है,कुछ अंश जरूर मिलते है,जो सामयिक होते है,उन्हे सामयिक रूप से तो संजोकर रखा जा सकता है,लेकिन हमेशा के लिये नहीं। जैसे शुक्र का रंग भूरा है,वह बर्फ़ के रूप में द्रश्य तो है लेकिन हमेशा के लिये बर्फ़ को संजोकर नही रखा जा सकता है,और जहां यह रंग है वहां जीव जन्तु वनस्पति का उदय और अस्त होना हमेशा के लिये नही माना जाता है कुछ जीवों को छोडकर यह प्रक्रिया देखी जा सकती है। भूरा और गिलगिला चित्र विचित्र रूप शुक्र का माना जाता है,इस रूप को प्राचीन काल से ही लोग बनाते और बिगाडते आये है,लेकिन कोई भी रूप स्थाई रूप से संजोकर नही रख पाये है,शुक्र के बाद बुध का रूप माना जाता है,बुध का रंग हरा है,हरे रंग की मिट्टी तो नही पायी जाती है लेकिन कहीं कहीं हरे रंग के पत्थर जरूर पाये जाते है लेकिन हरे रंग के पत्थर जैसे ही सूर्य की रोशनी में आते है कालान्तर में उनका रंग उड जाता है,वनस्पतियों के अन्दर हरा रंग पाया जाता है जो सामयिक होता है। बुध की आदत के अनुसार भी बुध वाले कार्य भी कालान्तर के लिये नही माने जाते है इनका बदलना भी अधिकतर सभी मामलों में देखा जा सकता है,जैसे व्यापार के रूप कमन्यूकेशन के रूप बुद्धि के भंडारण के रूप आदि बुध की श्रेणी में आते है।

पृथ्वी के पूर्ण ग्रह बन जाने के बाद शुक्र पर सृष्टि का विकास

जो भी ग्रह सूर्य से पृथ्वी वाली दूरी पर आकर स्थापित हुआ उस पर उसी समय सृष्टि का विकास होने लगा था। पृथ्वी वाली कक्षा में हाड्रोजन का आक्सीजन के साथ मिलना पानी के निर्माण के लिये आवश्यक है और यह फ़ार्मूला केवल पृथ्वी वाली कक्षा में ही निर्भर है,अन्यत्र यह फ़ार्मूला सम्भव नही है। जैसे जैसे पृथ्वी सूर्य से दूर होती जा रही है,वैसे वैसे हाड्रोजन का आक्सीजन से बिलगाव होता जा रहा है,परिणाम में पानी की कमी होती जा रही है। इस कारण को किसी भी प्रकार से रोका नही जा सकता है। शुक्र ग्रह जैसे जैसे अपनी गति के अनुसार पृथ्वी वाली कक्षा में आता जा रहा है वह जलीय कारणों से पूर्ण होने के लिये सक्षम होता जा रहा है। सूर्य से निकलने के कारण हर ग्रह पर हाइड्रोजन का भंडार तो असीमित मात्रा में है,लेकिन आक्सीजन का बनना उसी ग्रह के तत्वों के द्वारा निश्चित तापमान पर बनना माना जा सकता है। पृथ्वी के बराबर का तापमान किसी भी अन्य ग्रह पर नही है,यह तापमान पृथ्वी वाली कक्षा में ही निर्भर है। सूर्य से पृथ्वी दूर जा रही है,इस बात को जानने के लिये चन्द्रमा को उदाहरण के लिये माना जा सकता है कि वह पृथ्वी से हर साल 3.3 mm दूर हो रहा है,इतनी ही पृथ्वी सूर्य से हर साल दूर हो रही है और इतनी गति से ही शुक्र पृथ्वी वाली कक्षा में प्रवेश कर रहा है। पृथ्वी पर जीवन की अवधि को हम इस बात से भी जान सकते है कि आकाश की तरफ़ जाने पर हमें लगभग 15000 हजार फ़ुट की ऊंचाई तक आक्सीजन मिलती है.इस ऊंचाई तक हम आराम से सांस ले सकते है,इस ऊंचाई के बाद हमे सांस लेने में कठिनाई आजाती है। पृथ्वी को आक्सीजन वाले क्षेत्र को छोडने में अभी 1385454 वर्ष और लगेंगे,तभी तक इस पृथ्वी का जीवन समाप्त होना माना जा सकता है। अभी शुक्र पृथ्वी से 380 लाख किलोमीटर दूर है,अगली सृष्टि के लिये इतना ही इन्तजार हमें करना होगा। शुक्र की सृष्टि का फ़ार्मूला बहुत ही सुन्दर होगा,जिस प्रकार से पृथ्वी पर भूमितत्व की अधिकता से सभी कुछ द्रश्य होता है उसी प्रकार से शनि,गुरु,मंगल,भूमि तत्वों से युक्त शुक्र ग्रह का जीवन होगा। शनि से कर्म प्रधान,गुरु से ज्ञान से युक्त मंगल से पराक्रमी भूमि से महसूस करने की क्षमता से युक्त तथा शुक्र से खुद में खूबशूरत होना कितना सुहावना होगा वह द्रश्य.

वैदिक काल से मान्य सिद्धान्त

मंगलो भूमि पुत्रस्च श्लोक से माना जाता है कि मंगल भूमि का पुत्र है,भूमि का सिद्धान्त अन्य ग्रहों के सिद्धान्त से जुडा हुआ है,इस बात को समझने के लिये अंक विद्या से जानना जरूरी है,जिसे महसूस करने की शक्ति का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है उसके लिये श्री श्री १०८ का अंक प्रयोग करते है,अंक एक सूर्य का और शून्य पृथ्वी का तथा अंक आठ शनि के लिये प्रयोग किया जाता है,जिसे पराक्रम ज्ञान महसूस करना चित्रांकन करना और बुद्धि को इकट्ठा रखने के सिद्धान्त की समझ हो जाती है उसके लिये श्री श्री १००८ लिखना शुरु कर दिया जाता है,यह सिद्धान्त ग्रहों के सिद्धान्तों से जुडे है,व्यक्ति के जन्म लेने के बाद कर्म की तरफ़ बढना और भूमि तत्व में समाजाने की क्रिया को भी सूर्य से शनि की तरफ़ जाने का इशारा समझा जा सकता है।