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कुंडली में फ़लादेश के तरीके

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भारतीय ज्योतिष में जो फ़लादेश किया जाता है उसके लिये कई तरह के तरीके अपने अपने अनुसार अपनाये जाते है,लेकिन मै जो तरीका प्रयोग में लाता हूँ वह अपने प्रकार का है.

राशि चक्र में गुरु जहाँ हो उसे लगन मानना जरूरी है

कुंडली का विश्लेषण करते वक्त गुरु जहाँ भी विराजमान हो उसे लगन मानना ठीक रहता है,कारण गुरु ही जीव का कारक है और गुरु का स्थान ही बता देता है कि व्यक्ति की औकात क्या है,इसके साथ ही गुरु की डिग्री भी देखनी जरूरी है,गुरु अगर कम या बहुत ही अधिक डिग्री का है तो उसका फ़ल अलग अलग प्रकार से होगा,उदाहरण के लिये कन्या लगन की कुण्डली है और गुर मीन राशि में सप्तम में विराजमान है तो फ़लादेश करते वक्त गुरु की मीन राशि को लगन मानकर गुरु को लगन में स्थापित कर लेंगे,और फ़लादेश गुरु की चाल के अनुसार करने लगेंगे।

ग्रहों की दिशाओं को भी ध्यान में रखना जरूरी है

कालचक्र के अनुसार राशियों के अनुसार दिशायें भी बताई जाती है,जैसे मेष सिंह और धनु को पूर्व दिशा की कारक और मिथुन तुला तथा कुम्भ को पश्चिम दिशा की कारक वृष कन्या और मकर को दक्षिण दिशा की कारक तथा कर्क वृश्चिक और मीन को उत्तर दिशा की कारक राशियों में माना जाता है। इन राशियों में स्थापित ग्रहों के बल और उनके द्वारा दिये गये प्रभाव को अधिक ध्यान में रखना पडेगा।

ग्रहों की द्रिष्टि का ध्यान रखना जरूरी है

ग्रह अपने से सप्तम स्थान को देखता है,यह सभी शास्त्रों में प्रचिलित है,साथ ग्रह अपने से चौथे भाव को अपनी द्रिष्टि से शासित रखता है और ग्रह अपने से दसवें भाव के लिये कार्य करता है,लेकिन सप्तम के भाव और ग्रह से ग्रह का जूझना जीवन भर होता है,इसके साथ ही शनि और राहु केतु के लिये बहुत जरूरी है कि वह अपने अनुसार वक्री में दिमागी बल और मार्गी में शरीर बल का प्रयोग जरूर करवायेंगे,लेकिन जन्म का वक्री गोचर में वक्री होने पर तकलीफ़ देने वाला ग्रह माना जायेगा.

ग्रहों का कारकत्व भी समझना जरूरी है

ग्रह की परिभाषा के अनुसार तथा उसके भाव के अनुसार उसका रूप समझना बहुत जरूरी होता है,जैसे शनि वक्री होकर अगर अष्टम में अपना स्थान लेगा तो वह बजाय बुद्धू के बहुत ही चालाक हो जायेगा,और गुरु जो भाग्य का कारक है वह अगर भाग्य भाव में जाकर बक्री हो जायेगा तो वह जल्दबाजी के कारण सभी तरह के भाग्य को समाप्त कर देगा और आगे की पुत्र संतान को भी नही देगा जिससे आने वाले वंश की क्षति का कारक भी माना जायेगा.
जन्म के ग्रह और गोचर के ग्रहों का आपसी तालमेल ही वर्तमान की घटनायें होती है
जन्म के समय के ग्रह और गोचर के ग्रहों का आपसी तालमेल ही वर्तमान की घटनाओं को बताने के लिये माना जाता है,अगर शनि जन्म से लगन में है और गोचर से शनि कर्म भाव में आता है तो खुद के कर्मों से ही कार्यों को अन्धेरे में और ठंडे बस्ते मे लेकर चला जायेगा। इसके बाद लगन का राहु गोचर से गुरु को अष्टम में देखता है तो जीवन को बर्फ़ में लगाने के लिये मुख्य माना जायेगा,जीव का किसी न किसी प्रकार की धुंआ तो निकलना ही है।

गुरु के आगे और पीछे के ग्रह भी अपना अपना असर देते है

गुरु के पीछे के ग्रह गुरु को बल देते है और आगे के ग्रहों को गुरु बल देता है,जैसी सहायता गुरु को पीछे से मिलती है वैसी ही सहायता गुरु आगे के ग्रहो को देना शुरु कर देता है,यही हाल गोचर से भी देखा जाता है,गुरु के पीछे अगर मंगल और गुरु के आगे बुध है तो गुरु मंगल से पराक्रम लेकर बुध को देना शुरु कर देगा,अगर मंगल धर्म मय है तो बुध को धर्म की परिभाषा देना शुरु कर देगा और और अगर मंगल बद है तो गाली की भाषा देना शुरु कर देगा,गुरु के पीछे शनि है तो जातक को घर में नही रहने देगा और गुरु के आगे शनि है तो गुरु घर बाहर निकलने में ही डरेगा।

शनि चन्द्रमा की युति जन्म की साढेशाती

शनि और चन्द्रमा का कुंडली में कही भी योगात्मक प्रभाव है तो जन्म से ही साढेशाती का समय माना जाता है,इस युति का सीधा सा प्रभाव है कि जातक अपने अनुसार काम कभी नही कर पायेगा,उसे स्वतत्र काम करने में दिक्कत होगी उसे खूब बता दिया जाये कि वह इस प्रकार से रास्ता पकड कर चले जाना लेकिन वह कहीं पर अपने रास्ते को जरूर भूल जायेगा,इसलिये कुंडली में गुरु के साथ चन्द्रमा की स्थिति भी देखनी जरूरी होती है,वैसे चन्द्रमा को माता का कारक भी मानते है,लेकिन अलग अलग भावों में चन्द्रमा का अलग अलग रूप बन जाता है,जैसे धन भाव में चन्द्रमा कुटुम्ब की माता,तीसरे भाव में चन्द्रमा पिता के बिना नही रहने वाली माता चौथे भाव में चन्द्रमा से बचपन के सभी कष्टों को दूर करने वाली माता,पंचम स्थान से स्कूल की अध्यापिका माता,छठे भाव में मौसी भी मानी जाती है और चाची भी मानी जाती है,सप्तम में माता के रहते पत्नी या पति के लिये विनासकारी माता,अष्टम में माता का स्थान ताई के अनुसार हो जाता है,अगर ताई है भी तो माता की और ताई की नही बनेगी,नवे भाव में दादी का रूप यह चन्द्रमा ले लेता है,दसवें भाव में पिता से परित्याग की गयी माता,और ग्यारहवे भाव में जब तक स्वार्थ पूरा नही होता है तब तक की माता और बारहवें भाव में जन्म के बाद भूल जाने वाली माता के रूप में माना जाता है,इस चन्द्रमा के साथ जहां भी शनि होगा जातक के लिये वही स्थान फ़्रीज करने के लिये काफ़ी माना जायेगा।

कुंडली का सूर्य पिता की स्थिति को बयान करता है

गुरु को जीव की उपाधि दी गयी है तो सूर्य को पिता की उपाधि दी गयी है,उसी सूर्य को बाद में पुत्र की उपाधि से विभूषित किया गया है,लेकिन पिता के लिये नवा भाव ही देखना बेहतर तरीका होता है और पिता के ऊपर आने वाले कष्टों के लिये कुंडली के चौथे भाव में जब भी कोई क्रूर ग्रह गोचर करेगा या शनिका गोचर होगा पिता के लिये कष्ट का समय माना जायेगा। इसके अलावा राहु का गोचर पिता के लिये असावधानी से कोई दुर्घटना और केतु के गोचर से अचानक सांस वाली बीमारी या सांस की रुकावट वाली बीमारी को माना जायेगा,चन्द्रमा से जल से भय और मंगल से वाहन या अस्पताल या पुलिस से भय माना जायेगा। सूर्य और गुरु की युति से पिता पुत्र का एक जैसा हाल होगा,और जातक को जीवात्मा की उपाधि दी जायेगी,साथ ही अगर धर्म के भाव में स्थापित है तो ईश्वर अंश से अवतार माना जायेगा। राहु सूर्य और गुरु का साथ पुराने पूर्वज के रूप में जातक का जन्म माना जायेगा,और गुरु से तीन भाव पहले की राशि के काम करने के लिये जातक को वापस अपने परिवार में आने को माना जायेगा। सूर्य शुक्र का साथ बलकारी पिता और जातक के लिये भी बलकारी योग का रूप देगा,इसके अन्दर कितनी ही बलवान स्त्री क्यों न हो लेकिन जातक के वीर्य को अपनी कोख बडी मुश्किल से धारण कर पायेगी,जैसे ही पुत्र संतान का योग आयेगा,जातक की पत्नी किसी न किसी कारण से मिस कैरिज जैसे कारण पैदा कर देगी,लेकिन जैसे ही सूर्य का समय समाप्त होगा जातक के एक पुत्र की उत्पत्ति होगी। इसी प्रकार से सूर्य और चन्द्र का साथ जातक के जीवन में अमावस्या का योग पैदा करता है। जातक के बचपन में माता को पिता के कारणों से फ़ुर्सत ही नही मिल पायेगी,जो वह जातक का ध्यान रख सके। इसी तरह से चन्द्रमा और सूर्य का आमना सामना जातक के जीवन में पूर्णिमा का योग पैदा करेगा,जातक को छोड कर माता का दूर जाना कैसे भी सम्भव नही है और माता के लगातार साथ रहने के कारण जातक को किसी भी कष्ट का अनुभव नही होगा लेकिन वह अपने जीवन में माता जैसा सभी को समझने पर छला जरूर जायेगा,यहां तक कि उसकी शादी के बाद भी लोग उसे छलना नही छोडेंगे,उसकी पत्नी भी उसके साथ भावनाओं में छल करके उससे लाभ लेकर अपने मित्रों को देती रहेगी या अपने परिवार की भलाई का काम सोचती रहेगी।

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इस चित्र में जीवन के चारों पुरुषार्थो का रूप दिया गया है,पहला धर्म का है दूसरा अर्थ का है और तीसरा काम का है और चौथा मोक्ष का पुरुषार्थ दिखाया गया है। इन चारों पुरुषार्थों के लिये ही मानव जीवन का मिलना बताया जाता है। धर्म के पुरुषार्थ में शरीर परिवार पुत्र और विद्या बुद्धि धर्म भाग्य के लिये तीन राशियों का प्रयोग किया गया है,मेष सिंह और धनु राशिया इस पुरुषार्थ के लिये प्रयोग में लायी जाती है,मेष से शरीर नाम पहिचान और शरीर की बनावट आदि के लिये देखा जाता है सिंह से शिक्षा संतान और बुद्धि के साथ जीवन के विकास और प्राथमिक क्षेत्र देखे जाते है धनु से पैत्रिक स्थिति और समाज का स्थान तथा जातक की देश विदेश संस्कार कानून और बडी शिक्षा के लिये देखा जाता है,इसी स्थान से पूजा पाठ और कार्य के लिये बल देने वाले क्षेत्र देखे जाते है,इसके ठीक सामने काम नामका पुरुषार्थ है इसकी राशियों में मिथुन तुला और कुम्भ राशि का वर्णन मिलता है। मिथुन राशि से अपनी पहिचान बनाने के लिये पहने जाने वाले कपडे बोली जाने वाली भाषा तथा जीवन साथी के लिये जो धर्म और परिवार का नियम होता है उसके लिये जाना जाता है तुला राशि से जीवन साथी के प्रभाव के बारे में उसकी शरीर की बनावट उसके रूप और गुणों का प्रभाव देखा जाता है,तथा कुम्भ राशि से काम नामके पुरुषार्थ को साथ लेकर जीवन में कितना संतान और परिवार का बल मिलेगा कार्यों के बाद जो भी प्राप्तियां होंगी वह इसी पुरुषार्थ से पता किया जाता है,काम हमेशा धर्म को देखता है और धर्म हमेशा काम को देखता है। इसके बाद अर्थ का पुरुषार्थ आता है,इस के अन्दर वृष कन्या और मकर राशियां मिलती है,वृष भौतिक धन के मामले में जाना जाता है जो शरीर को पिता के परिवार से मिलता है और जो धन खर्च करने के लिये पास में होता है इसके बाद कन्या राशि से कर्जा दुश्मनी बीमारी और रोजाना के कार्यों को देखा जाता है,जब वृष राशि कमजोर होती है और पास में धन खर्च करने के लिये नही होता है तो अर्थ के लिये व्यक्ति को नौकरी आदि करनी पडती है,और अगर वह नौकरी आदि करने के लिये काबिल नही है तो कर्जा लेना पडता है तथा जो भी धन के लिये जद्दोजहद की जाती है उसके लिये होने वाले दुश्मनी और कार्य के बाद मिलने वाली मुशीबतों से होने वाली बीमारियों के बारे में जाना जाता है,इसके बाद मकर राशि से जो भी धन और रोजाना के कार्य किये जाते है उससे जो द्रश्य कर्म होता है उसके लिये जाना जाता है मकर राशि के बाद ही लाभ या हानि का प्रभाव देखा जाता है,इसके बाद में मोक्ष का भाव आता है,इसके अन्दर कर्क,वृश्चिक और मीन राशियों को देखा जाता है,जो भी जीवन में शरीर से धन कमाया है पुत्र और पुत्री संतान के अलावा जीवनसाथी से जो प्रभाव मिला है वह पहले रहने वाले स्थान के लिये कर्क राशि से जोखिम लेने का बल और मौत होने का कारण वृश्चिक राशि तथा जो लाभ या हानि हुयी है उसके बाद जीवन में वापस आने के लिये निर्णय देने वाली मीन राशि होती है। अर्थ हमेशा मोक्ष को देखता है और मोक्ष हमेशा अर्थ को देखता है। यह जीवन चक्र की संक्षिप्त परिभाषा मानी जाती है।

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इस कुंडली में उत्तर भारतीय मानक के अनुसार और लहरी पद्धति के अनुसार गुरु से जीवन के फ़लादेश को करने का तरीका बताया गया है,लिखे गये ग्रहों का विवेचन करने के लिये गुरु को पहले लगन स्थान में लाया गया है,गुरु के पीछे चन्द्रमा है और गुरु के आगे सूर्य और राहु बुध के साथ है। गुरु का सप्तम को देखा जरूर जा रहा है लेकिन गोचर या चन्द्रमा की गति के अनुसार केवल सामयिक देखना ही माना जा सकता है,धर्म भाव में गुरु और मंगल के उपस्थित होने से जातक और जातक का भाई एक साथ है,धन भाव में राहु सूर्य और बुध है,राहु दादा के रूप में है सूर्य पिता के रूप में है और बुध बहिन या बुआ के रूप में है। तीसरे भाव यानी काम के रूप में शनि और शुक्र है,शनि का स्थान व्रुश्चिक राशि में होने के कारण शमशानी या बंजर जमीन और शुक्र के साथ होने से तथा अभावों में जीवन को जीने की कला का विकास माना जा सकता है,मोक्ष के भाव में चन्द्र केतु है,चन्द्रमा को माता तथा केतु को नाना का प्रभाव देने से अन्तगति के लिये ननिहाल का स्थान माना जा सकता है। इस प्रकार से नाम आदि की जानकारी भी गुरु के अनुसार ही मिलती है। लेकिन इसके लिये बाद में लिखा जाना ठीक होगा।


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