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जन्म से मनुष्य अपूर्ण होता है,ज्ञान के द्वारा ही उसमे पूर्नता आती है,ब्रहमरूप परमात्मा की की सत्ता में आध्यात्मिक,आधिदैविक,और आधिभौतिक तीनो सक्तियां वर्तमान है.पादेन्द्रिय को अध्यात्म,गन्तव्य को आधिभूत,और विष्णु को अधिदेव माना गया है,इसी प्रकार से वागेन्द्रिय तथा चक्षुरिन्द्रिय को क्रमश: अध्यात्म,वक्तव्य,और रूप को अधिभूत,अगिनि और सूर्य को अधिदैव कहते हैं,इसी क्रम से प्राणी के भी तीन भाव होते हैं,आधिभौतिक शरीर,आधिदैविक मन,और आध्यात्मिक बुद्धि,इन तीनो के सामजस्य से ही मनुष्य में पूर्णता आती है,इस पूर्णता की प्राप्ति के लिये ईश्वर से नि:स्वासित वेद का अध्ययन और अभ्यास आवश्यक है,क्योंकि वेद मन्त्रों में मूलरूप से इसके उपाय निरूपित हैं,मनुष्य को आधिभौतिक शुद्धि कर्म के द्वारा,आधिदैविक शुद्धि उपासना के द्वारा तथा आध्यात्मिक शुद्धि ज्ञान के द्वारा प्राप्त होती है.आध्यात्मिक शुद्धि प्राप्त होने पर परमात्मा की उपलब्धि हो जाती है,और मनुष्य को मोक्ष मिल जाता है.वेद मे कहा गया कि ज्ञान के बिना मुक्ति नही मिलती,यह बात ही ज्ञान की सर्वश्रेष्ठता की परिचायक है.ज्ञान तत्वज्ञानी गुरु की नि:स्वार्थ सेवा तथा उनमे श्रद्धा रखने से प्राप्त होती है,तत्वज्ञानी गुरु अपने शिष्य की सेवा,जिज्ञासा,तथा श्रद्धा से संतुष्ट होकर उसे ज्ञानोपदेश देते हैं,ज्ञान संसार में सर्वाधिक पवित्र वस्तु है,योगी को भी पूर्ण योगसिद्धि मिलने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है.,ज्ञानमार्ग मे प्रवेश करने का अधिकार चार प्रकार के साधनो से पूर्ण व्यक्ति को दिया गया है,नित्यनित्य वस्तु विवेक,इहामुत्र फ़ल्भोगाविराग,शमदमादि षटसम्पत्ति और मुमुक्षुत्व चार प्रकार के साधन बताये गये हैं.पहले प्रकार मे आत्मा की नित्यता और संसार की अनित्यता का विचार आता है,दूसरे के अन्तर्गत इहलोक और परलोक सुख भोग के प्रति विरक्त भाव निहित है,तीसरे मे शम दम तितिक्षा उपरति श्रद्धा और समाधान इन छ: सम्पत्तियों का संचय होता है,तत्वज्ञान को छोडकर,अन्य विषयों के सेवन से विरक्ति होना शम है,इन्द्रियों का दमन दम है,भोगों से निवृत्ति उपरति है,ठंड गर्मी आदि को सहन करने शक्ति तितिक्षा,गुरु और शास्त्र मे अटूट विश्वास श्रद्धा,और परमात्मा के चिन्तन में एकाग्रता समाधान कहे जाते हैं,चौथा साधन मोक्ष प्राप्त करना ही मुमुक्षुत्व है,यह चारो साधन ज्ञानमार्गी के लिये आवश्यक है,इनके अभाव में कोई भी व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति का अधिकारी नही है,ज्ञानप्राप्ति के श्रवण,मनन,और निदिध्यासन,तीन अंग है,गुरु से तत्वज्ञान सुनने को श्रवण,उसपर चिन्तन करने का नाम मनन,और मननकृत पदार्थों की उपलब्धि का नाम निदिध्यासन है,इनके सम्यक और उचित अभ्यास से मनुष्य को ब्रह्मरूप का साक्षात्कार होता है,इस तरह प्रकृति के सभी भागों पर चिन्तन करते हुए,साधक स्थूल से लेकर सूक्षम भावों तक अपना अधिकार प्राप्त कर लेता है,(सांख्यदर्शन) के अनुसार पंचमहाभूत,पंचकर्मेन्द्रियां,पंचतन्मात्रा,मन,अहंकार,महतत्व,और प्रकृति इन चौबीस तत्वओं के आयाम में सृष्टि के प्राणी अर्थात पुरुष प्रक्रुति का उपभोग कर रहे है,पर वेदान्त प्रक्रिया में प्राणी की रचना के ज्ञानार्थ पंचकोषों का निरूपण होता है,तदनुसार चेतन जीव के माया से मोहित होने की स्थिति आनन्दमय कोष है,बुद्धि और विचार विज्ञान मय,ज्ञानेन्द्रिय और मन मनोमय,पंचप्राण और कर्मेन्द्रिय प्राणमय, और पंचभौतिक शरीर अन्नमय कोष हैं,इन कोषों में बद्ध होकर मनुष्य या जीव अपने स्वरूप को भूल जाता है,लेकिन गुरु का उपदेश मिलने पर जब उसे अपने वास्तविक सच्चिदानन्द ब्रह्मस्वरूप का अनुभव होता है,तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है,जीव को माया से मुक्त और मोक्ष तक पहुँचाने वाली क्रमिक स्थिति की सप्त भूमियां हैं,स्थूल दर्शी पुरुष के लिये सीधे आत्मा का ज्ञान होना असम्भव है,इसलिये प्राचीन महर्षियों ने इन सप्त ज्ञानभूमियों के निरन्तर अभ्यास से क्रमोन्नति करते हुए विज्ञानमय सप्त दर्शनों के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग बनाया,सप्त ज्ञानभूमियों के सप्त दर्शनो का नाम है-
न्याय,वैशेषिक,
पातन्जल,
सांख्यपूर्वमीमांसा,
दैवीमीमांसा,और
ब्रह्ममीमांसा,
इनकी साधना करके जीव ज्ञानमय बुद्धि हो जाने से प्रम पद को प्राप्त होता है,ज्ञानप्राप्ति के ये ही मूलतत्व हैं.
ब्रहममीमांसा या वेदान्त विचार के द्वारा साधक को ब्रहमज्ञान तब प्राप्त होता है,जब वह देहात्मवाद से क्रमश: आस्तिकता की उच भूमि पर अग्रसर होता है,अत:ऐसे साधक को एकाएक "तत्वमसि" या "अहम ब्रह्मास्मि" का उपदेश नही देना चाहिये,ज्ञानमार्ग में प्रथम प्रवेश पाने वाले प्रथम अधिकारी के लिये अन्त:करण के सुख दुख रूप आत्मतत्व के उपदेश का न्याय वैशेषिक दर्शन में विधान है,देह को आत्मा समझने वाले व्यक्ति के लिये प्रथम कक्षा में देह और आत्मा की भिन्नता का ज्ञान ही पर्याप्त है,सूक्षम तत्व में सामान्य व्यक्ति का एकाएक प्रवेश नही हो सकता है, इसलिये न्याय और वैशेषिक दर्शन में आत्मा और शरीर के अलग होने का ज्ञान कराया जाता है,इससे साधक देहात्मवाद से विरत हो व्यावहारिक तत्वज्ञान की ओर अग्रसर होता है,इससे आगे बढने पर सांख्य और पातन्जल दर्शन आत्मा के और भी उच्चतर स्तर का दर्शन करवाते है,इन दोनो दर्शनो के अनुसार सुख-दुख आदि सब अन्त:करण के धर्म हैं,पुरुष को वहां असंग और कूटस्थ माना गया है,पुरुष के अन्त:करण में सुख-दुखादि का भोक्तृ भाव औपचारिक है,तात्विक इसलिये नही है,कि आत्मा निर्लिप्त और निष्क्रिय है,इससे यही निष्कर्ष निकला कि सांख्य और पातन्जल दर्शन से आत्मा की असंगता तो सिद्ध होती है,पर एकात्मवाद नही.
सांख्य में बहुपुरुषवाद की कल्पना की गयी है,उससे परमात्मा की अद्वितीय उपलब्धि नही होती,अपितु वह प्रत्येक पिण्ड में अलग अलग कूटस्थ चैतन्य के रूप में ज्ञात होता है,इस तरह से सांख्य की ज्ञानभूमि पुरुषमूलक है,प्रकृति के आस्तित्व की स्वीकृति के कारण वहां प्रक्रुति को अनादि और अनन्त कहा गया है.
कर्म मीमांसा या पूर्वमीमांसा में जगत को ही ब्रह्म मानकर, अद्वितीयता की सिद्धि की गयी है,इससे जीव द्वैतमय जगत से अद्वैत्मय ब्रह्म की ओर जाता है,इससे साधक की गति ब्रह्म के तटस्थ स्वरूप की ओर होती है,इसके अनन्तर दैवीमीमांसा आती है,यह वह उपासना भूमि है जो ब्रह्म की अद्वितीयता को प्रक्रुति के साथ मिश्रित कर उसको शुद्ध स्वरूप की ओर दिखाती है,वहां ब्रह्म को ही जगत की संज्ञा दी जाती है,इसमे आत्मा का यथार्थ ज्ञान प्रक्रुति के ज्ञान के साथ होता है,(मुण्डकोपनिषद) के अनुसार ब्रह्म सत्ता अघ:,ऊर्ध्व सर्वत्र व्याप्त है,(श्वेताश्वतरोपनिषद) में भी अग्नि आदित्य वायु चन्द्र और नक्षत्रादि को ब्रह्म रूप माना गया है,वहां परमात्मा को ब्रहमाण्ड के सम्पूर्ण चराचर रूप में वर्णित किया गया है,और उसे स्त्री-पुरुष बालक युवक और वृद्ध सभी रूपों मे देखा गया है,इस तरह से दैवीमीमांसा दर्शन की ज्ञान भूमि में परमात्मा को व्यापक निर्लिप्त नित्य और अद्वितीय कार्यब्रह्म के रूप में स्वीकार किया है.
ज्ञान की सप्तम भूमि ब्रह्ममीमांसा वेदान्त की है,इससे निरूपित ब्रह्म निर्गुण और प्रकृति से परे है,उसमे माया अथवा प्रकृति का आभास भी नही है,माया उसके नीचे ब्रह्म के ईश्वर भाव से सम्बद्ध है,वेद के अनुसार परमात्मा के चार पादों मे से एक पाद मायाच्छन्न और सृष्ति विलासित है,और शेष तीन माया से परे अमृत हैं,यह तीनो ही ब्रह्म भाव हैं,यहां सांख्य दर्शन का मायागत पुरुषवाद नही है,यहां माया का लय है,इसीलिये वेदान्त में माया को अनादि कहकर भी शान्त किया गया है,माया का एकान्त अभाव होने से शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप परब्रह्म का साक्षात्कार होता है,निर्गुण ब्रह्म देश काल और वस्तु से परे है,इसीलिये वह नित्य विभु और पूर्ण है,राजयोगी इसी निर्गुण परब्रह्म भाव का अनुभव करता है,साधक इस दशा में निर्विकल्प समाधि धारण करता है.
परब्रह्मपरमात्मा स्वयं प्रकाशमान है,वह सर्वातीत और निरपेक्ष है,उन्ही के तेजोमय प्रकाश से सूर्य,और सूर्य से चन्द्र,नक्षत्र,बिजली आदि प्रकाशमान है,इन सबका प्रतिपादन वेदान्तभूमि मे है,इसी की उपल्ब्धि से साधक को निर्वाण की प्राप्ति होती है,यही जीवन यज्ञ का अवसान और ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति है.
वेदों मे समुच्चय रूप में तीन विषयों का प्रतिपादन हुआ है,कर्मकाण्ड,ज्ञानकाण्ड,और उपासना काण्ड,ज्ञानकाण्ड वह है,जिससे इहलोक,परलोक,और परमात्मा के सम्बन्ध में वास्तविक रहस्य की बातें जानी जाती हैं,इससे मनुष्य के स्वार्थ,परमार्थ,और परार्थ की सिद्धि की जाती है,वेदान्त ज्ञानकाण्ड और उपनिषद प्राय: समानार्थक शब्द हैं,वेद के ज्ञानकाण्ड के अधिकारी बहुत ही थोडे लोग होते हैं,जबकि कर्मकाण्ड के अधिकारी बहुत से लोग.
शैव आगमों और संहिताओं के चार विभाग हैं,ज्ञानपाद,योगपाद,क्रियापाद,और चर्यापाद,ज्ञानपाद में दार्शनिक तत्वओं का निरूपण बहुत ही भली प्रकार किया गया है.(ज्ञानप्रकाश) सुधारवादी या निर्गुणवादी के प्रति अपनी पूरी योग्यता का परिचय देता है,यह सम्वत १८०७ में सन्त जगजीवनदास ने लिखा था.(ज्ञानयथार्थ्यवाद) विशिष्टाद्वैतवाद के बारे मे भी ज्ञान देता है.(ज्ञानामृतसागर) मे कहा गया है,कि सुमिरन,कीर्तन,वन्दन, पादसेवन,अर्चन और आत्मनिवेदन यह छ: प्रकार का ज्ञान आधुनिक युग मे फ़लदायी है.(जिज्ञासुओं से निवेदन है,कि पूर्ण रूप से समझने के बाद ही किसी दैहिक क्रिया,या मानसिक क्रिया को करने का प्रयास करें.