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ज्ञान-योग

मनुष्य शरीर का ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है,ज्ञान की परिभाषा विभिन्न शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से की गयीं है। किसी की मिल्कियत ज्ञान नही होती है,वह ब्राह्मण को भी होता है,क्षत्रिय को भी होता है,वैश्य को भी होता है,शूद्र को भी होता है। ज्ञान की देवी सरस्वती को माना है,ज्ञान का ग्रह छायाग्रह राहु है। राहु के प्रभाव के बिना ज्ञान असम्भव है। शंका नही होगी तो समाधान का कारण नही खोजना पडेगा। समाधान खोजने के लिये बुराई में भी जाना पडेगा तो अच्छाई में भी जाना पडेगा। ज्ञान को ज्ञान के द्वारा खोजने पर बुराई से बचा जा सकता है। ज्ञान को अज्ञान से खोजने पर प्रताणना तो मिलती है,उसे कोई रोकने वाला नही है। ज्ञान को मनुष्य जीवन में परिभाषित करने के लिये शरीर के  अंगों को प्रयोग में लिया जाता है। ज्ञान को अनुभव के आधार पर वर्गीकृत किया जाना श्रेष्ठतम आधार माना जा सकता है। ज्ञान का सबसे बडा शत्रु अहम माना जाता है,जहाँ अहम की उत्पत्ति हुयी वहीं ज्ञान की सीमा समाप्त हो जाती है। साधन,साधन को प्राप्त करने वाला स्थान,और साधन के द्वारा मिलने वाली संतुष्टि ज्ञान की पूर्णता का भान देती है। लेकिन पूर्ण ज्ञानी होना केवल कल्पना ही मानी जा सकती है। ज्ञान के लिये भूख का होना जरूरी है,वह भूख शरीर की भूख भी होती है,मन की भूख भी होती है,संतुष्ट व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त नही कर सकता है,यह अटल सत्य है। तपस्या शरीर की भूख को बढाने के लिये है,ध्यान मन की भूख को अधिक उग्र करने के लिये उत्तम साधन है।

तीनो प्रकार के ज्ञान जिनके अन्दर आधयत्मिक ज्ञान केवल स्वयं को ज्ञान प्राप्त करने के बाद तक के लिये प्राप्त किया जाता है,भौतिक ज्ञान संसार की प्रगति के लिये और प्राणियों के कल्याण के लिये उत्तम माना जाता है,दैविक ज्ञान का प्रयोग मोक्ष प्राप्त करने के साथ ईश्वरीय शक्तियों को अनुभव करने के लिये प्राप्त किया जाता है। भौतिक ज्ञान के लिये शरीर को तपाने के बाद राज मिलता है,राज करने के अन्दर किये जाने वाले अहम वाले कार्यों से नरक की प्राप्ति होती है। नरक को समाप्त करने के लिये दुबारा से फ़िर तपस्या करनी पडती है,इस प्रकार से मनुष्य का जीवन प्रवाह चला करता है। आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति करने के बाद ब्रह्म की प्राप्ति होती है,जलचर थलचर और नभचर जड चेतन आदि सभी को एक रूपता में देखने की समरसता का प्रभाव मिलता है,मोक्ष मिल जाता है और आगे के आवागमन से बचने के लिये आधात्मिक तपस्या की जाती है। दैविक ज्ञान की प्राप्ति के लिये भौतिक ज्ञान की सीमा में ही रहकर अनुभव प्राप्त करने के लिये तपस्या की जाती है। यह ज्ञान संसार की कल्याणकारी श्रद्धा के लिये प्रयोग में लाया जाता है। इस ज्ञान के द्वारा जो भटक गये है उन्हे रास्ता दिखाया जाता है,जीवन में चमत्कार दैविक शक्तियों के द्वारा ही प्राप्त होता है,दैविक शक्तिओं से चमत्कार दिखाने के बाद ही भटके लोगों को रास्ते पर लाया जाता है,और उन्हें संतुष्टि देने के बाद माया,मोह,मत्सर,डाह आदि से दूर किया जाता है,जो लोग इस क्रिया को करना जानते है वे ही सांसारिक व्यक्तियों के गुरु कहलाने के योग्य बनते है। केवल चमत्कार दिखाने के बाद स्वयं को प्रसिद्ध करने के बाद अगर शरण में आये व्यक्ति को संतुष्ट नही किया गया तो वह गुरु कहलाने का अधिकारी नही माना जाता है।


शरीर की विभिन्न ज्ञानेन्द्रियां
शरीर का संचालन एक गति के अनुसार संचालित प्रकृति के द्वारा किया जाता है। प्रकृति को अपने अन्दर अनुपातिक समानता रखने के लिये विभिन्न प्राणियों को धरती पर उत्पन्न करना पडता है। प्राणियों के आहार विहार और साधन बनाने की क्रिया प्रकृति उन्ही प्राणिओं से ही करवाती है,अगर प्राणी किसी प्रकार से अनुपात से अधिक या कम करता है तो प्रकृति अपने किसी भी रूप से उस अनुपात में समानता लाने का उपाय खुद करती है। आध्यात्मिक और भौतिक अनुपात बराबर  चलाने के लिये प्रकृति अपने अनुसार समानता बनाती रहती है। इसी बात को देव और दानव की उत्पत्ति के रूप में जानी जाती है। जब धरती पर धर्म अधिक बढ गया तो उसके अन्दर समानता लाने के लिये रावण को उत्पन्न किया गया,जैसे ही रावण के द्वारा भौतिकता का प्रभाव अधिक बढा तो राम को पैदा करने के बाद उस भौतिकता को जलाकर राख कर दिया गया। अच्छा बुरा,ठंडा गरम,रात-दिन,आदि की बातों में जो आभास मिलता है वही आभास आध्यात्मिक और भौतिकता में मिलता है,लेकिन सच को सच कहना बहुत ही मुश्किल की बात है,जैसे अगर कहा जाये कि शरीर सत्य है या आत्मा सत्य है,शरीर को देखने के लिये भौतिकता में जाना पडेगा और भौतिक आंखों का प्रयोग करना पडेगा,लेकिन आत्मा को देखने के लिये आंखों को बन्द करना पडेगा और आध्यात्मिक आंखो का प्रयोग करना पडेगा,आध्यात्मिक आंखों के सामने नितान्त अंधेरे का राज होता है,और भौतिक आंखों के सामने नितान्त उजाला होता है,अगर सत्य अन्धेरा है तो उजाले को झूंठ मानना पडेगा,उजाले को सत्य मान लेते है तो आध्यात्मिकता को झुठलाना पडेगा। सामने जो है वह सत्य है तो मानना पडेगा कि कल वह असत्य था या आगे वह असत्य हो जायेगा,शरीर के मामले में जाओ तो कल था ही नही,और कल भी नही होगा,आज जो है वह भौतिक रूप से दिखाई दे रहा है,लेकिन आत्मा कल भी थी आज भी है और कल भी रहेगी,लेकिन आत्मा को देखने के लिये आत्मा की आंखों का सहारा लेना आये तभी तो आत्मा को देखना पडेगा। सूर्य को हमारी वैदिक भाषा में वेद की आंख से परिभाषित किया गया है,वेद की आंख से देखने के लिये ज्योतिष का सहारा लिये बिना सूर्य की गति को सूर्य के स्वभाव को सूर्य के द्वारा मिलने वाले सत्य और असत्य प्रभाव को समझना भी मुश्किल है,ज्योतिष को परखने के लिये सूर्य के नीचे सभी ग्रहों को सूर्य के पास वाले सूर्य से दूर वाले ब्रह्माण्डीय ज्ञान को प्राप्त करना भी जरूरी है। जब सूर्य के ज्ञान को प्राप्त करते है तो आंखों को बन्द करने के बाद सूर्य को देखना समझना महसूस करना बहुत ही मुश्किल की बात है।

अक्सर आध्यात्मिकता में जाने के बाद सहज योग की क्रियाओं में हम किसी छवि को अपने चेतन दिमाग में लगातार रखकर मन की गति को साधने की क्रिया को करते है,इस प्रकार से आध्यात्मिकता में जाने की बजाय हम त्राटक को अचेतन मन में स्थापित कर लेते है,इस त्राटक के द्वारा द्रश्य और अद्रश्य दोनो प्रकार के द्रश्य तो हमारी अचेतन अवस्था के समय की मानसिक याददास्त में शामिल हो जाते है और हम किसी प्रकार के द्रश्य को प्राप्त करने के बाद जो हमारी पहले की कल्पित छवि कभी कभार सामने आजाती है तो हम समझ लेते है कि हम आध्यात्म में पूर्ण हो गये है लेकिन वह केवल स्वप्नावस्था से अधिक और कुछ नहीं माना जा सकता है,इसके लिये महात्मा कबीर ने लिखा था,-"छप्पर चढिकर गधा नाचे,ऊँट विष्नुपद गावे,ठगनी क्यों नैना झमकावै,कद्दू काटि मृदंग बनायो,नीबू काटि मजीरा,पांच तुरैयां मंगल गावैं नाचे बालम खीरा,ठगनी क्यों नैना झमकावै". अर्थात ध्यानावस्था में जाने के बाद जो हमने देखा सुना है उसी का भान होने लगता है,वही स्वपनावस्था सामने होती है,गधा छप्पर पर चढ कर नाचने लगता है,ऊंट भगवान के पद गाने लगता है,यह कभी भी असंभव नही है लेकिन स्वप्नावस्था तो अकल्पित विचारधाराओं का समूह ही तो है,इसे ध्यान लगाकर समाधिवस्था कहा जाये तो नितान्त आध्यात्मिकता के प्रति असत्य ही माना जा सकता है,और इस प्रकार से मिला  ज्ञान कोई ज्ञान की सीमा में नही जा पायेगा,वह जरूर भ्रम वाली स्थिति को आजीवन रखकर चलने वाली बात मानी जा सकती है।