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श्रीकृष्ण की शक्ति श्रीराधिका

जयति श्रीपति: सिद्धिराधारमणविभ्रम:,श्रीवल्लभश्च जयति श्रीपतिस्तत्प्रकाशक:॥ सारा आस्तिक जगत यह स्वीकार करता है कि अवश्य किसी सार्वभौम अलक्ष्यसत्ता को कोई महामहतीशक्ति इस प्रपंच मे कार्यों को चला रही है।जिस समय हम घट पट आदि भेदों की उपेक्षा कर इस प्रपंच पर द्रिष्टि डालते है तो हमारे ह्रदय मे इस जगत का एक भावापन्न अगाध अप्रमेय स्वरूप अंकित हो जाता है। जल कणों से ही जल बनता है,सहस्त्रश: एक्व्हावापन्न जल कणों को ही जल कहा जाता है,और ऐसे ऐसे कोटिश: जल जब एकत्र होते हैं तब हमुसे समुद्र कहते है,उस समय यह एकभावापन्न जल राशि मौष्य के लिये अगाध अप्रमेय अचिन्त्य जैसी हो जाती है।यही तुलना जगत की है,अनन्त भेद का नाम जगत या प्रपंच है,जिसका फ़िर टुकडा न हो सके,इस प्रकार के अनन्त टुकडों से और भेदों से यह सारा प्रपंच बना है,और तब यह अगाध अनन्त अप्रमेय और अचिन्त्य जैसा हो गया है,इतना दुर्बोध रहते भी हम यह तो देख ही रहे है कि प्रत्येक पल में इस अगाध अचिन्त्य विश्व भी प्रत्येक लघु से लघु अवयव अपने एक रूप को छोडकर दूसरे विचित्र रूप को धारण करता रहता है,यह गति रोकने से रुकती नही,कभी कभी तो यह हाल होता है कि विश्व की किसी छोटी से छोटी गति को भी रुकने वाला स्वयं उसी गति के प्रवाह में बहने लगता है,इस विश्व की गति को कोई समझकर भी नहीं समझ पाता। कोई कोई सुनकर देखकर भी नहीं समझने पाते,यह सारा जगत किसी चतुष्पात (चारों तरफ़ एक समान) निवास करने वाले महाशक्तिमान का एक चरण है,जिसके मान लिये एक टुकडे का भीजब बडे बडे बुद्धिमान लोग शिव सनकादि पता नही पा सकते तब फ़िस उस सर्वांशी सर्वेश्नान सर्वश्यवशी सच्चिदानन्द भगवान का पता अल्पाल्पज्ञ जीव कैसे पा सकता है।हमारी शक्ति भी उतने ही नाप तौल की होती है,जितने हम होते है,इस उदाहरण से ही यदि काम लें तो कह सकते है उस विश्वातीत सर्वेश्वर भगवान की शक्ति भी वैसी है जैसा वह है। वह विश्वातीत है तो यह भी अप्रमेया है,वह सर्वेश्वर है तो यह भी सर्वेश्वरी है,वह सब को वश में कर लेने वाला है तो यह भी विश्वमोहिनी है,यदि उनकी महिमा मन वचनों से अतीत है तो फ़िर भगवती की भी लीला अपरम्पार है,ऐसी दशा में हम उस अचिन्त्य शक्तिमान और उसकी शक्ति को जो दोनो मिलकर इस अचिन्त्य जगत को चला रहे है,कैसे और किस रूप में दुनिया के आगे प्रकाशित करें,हमारी सामर्थ्य नहीं है,चलो छुट्टी मिली,सोना चाहते ही थे,बिछौना भी मिल गया।किन्तु यह हमारा कल्याण हमे चैन से बैठने नहीं देता,यह हमारे ह्रदय में बैठा बैठा ही साल में एक बार तो हमें उठा ही देता है,कहता है कि कब तक ओंघते रहोगे,एक दिन तो चलना ही है,एक धर्मशाला में कितने दिन सो सकोगे,और कहीं ठिकाना नहीं हो तो कल्याण के घर ही चलकर सोओ,वहां पहुंचने पर फ़िर आपको कोई नही उठा सकता। तो जबरदस्ती कल्याण के घर चलना होगा,अच्छी बात है,हम तो ऐसे पोस्ती है,कि -"नाहूता न यास्यामो गृहे मृत्येर्हरेरपि",किन्तु मेरे मित्र कल्याण! तुम्हारे घर का तो हमें पता ही है,कैसे पहुंचेंगे,क्या कहा,यह लकडी थाम लो,इसके सहारे से पहुंच जाओगे,बहुत से अंधे आजतक इसी से अपना काम चला गये,और बहुत से आज भी अपना काम चला रहे है,अंधों की आंखें लकडी है,लकडी के द्वारा वे अपने घर का मार्ग तै कर लेते है,’सर्वस्य लोचनं शास्त्रम’,अज्ञानियों को अपना ध्येय प्राप्त करने के लिये नेत्र शास्त्र ही है,उस परात्पर भगवान की शक्ति का निरूपण करने के लिये शास्त्र ही नेत्र ज्योति है,हमें उसके लिये शास्त्र की ही शरण है।

शक्ति का स्वरूप

भगवान की शक्ति भगवान से पृथक नही है,वह भी भगवान ही है,ये सच्चिदानन्द भगवान जिस समय तिरोहितधर्म सुप्त शक्ति अतएव अन्त:क्रीड व्यापक रहते हैं,उस समय उनकी यह शक्ति महारानी भी उनके स्वरूप में मिली हुई जागती हुई भी सोती रहती है,एक व्यापक रहती है और जब वे भगवान जगत रूप से अनन्त रूप धारण करते है तब यह शक्ति महारानी भी अपने अनन्त रूप बना लेती है।

भगवान ने जगत रूप में अपनी क्रीडा के व्यवहारों को यथावस्थित चलाने के लिये विरुद्धाविरुद्ध अनेक रूप धारण किये है तो शक्ति भी इसी प्रकार से विरुद्ध अविरुद्ध विविध प्रकार से प्रकत हुयी है,अतएव भगवान के अनन्त रूप है तो उनकी शक्तियां भी अनन्त है,उनमे विरुद्ध शक्तियां भी सप्रयोजन है,जिस कार्य की अपेक्षा है,उसको करने के लिये तदनुकूल शक्ति का भी निर्माण किया गया है,विरुद्ध शक्ति के प्रादुर्भाव से कार्य को अनुकूल कर लिया जाता है,जड को किंवा चेतन जब किसी पदार्थ की किसी दूसरे पदार्थ में अति आसक्ति होकर क्रीडा होने लगती है और उस क्रीडा से दोष होने की सम्भावना होने लगती है,किंवा दोष उत्पन्न होते है तब भगवान उसी समय उससे विरुद्ध शक्ति को उत्पन्न कर उन आते हुए दोषों को दूरकर पदार्थों का समीकरण करते रहते है,इस तरह वे कर्मज कालज और स्वभावज दोषों को अपनी चिच्छाक्ति से दूर करते है,और मोहिनी माया से आते हुये दोषों का निर्वतन करते है,देश दोष तो भगवान में आ ही नही सकते है,क्योंकि भगवान अपने आत्मामें ही सर्वदा निवास करते है,यह अक्षर ब्रह्मरूप भगवदात्मा सर्वधर्मों से अस्पृष्ट ही रहता है,इस तरह भगवान सर्वजगदरूप रहने पर भी उच्चावच सर्व प्रकार की लीलाओं को करते रहने पर भी अपने स्वरूप में लीला में पांचो प्रकार के दोषों का सम्बन्ध न होने देने के लिये विविध अनन्त शक्तियों का आविर्भाव करते हैं।

इस अनन्त शक्तियों में तीन शक्तियां प्रधान है,सर्वभवनसामर्थ्य मोहिनी और क्रिया,ये प्रधान किंवा अप्रधान सब प्रकार की शक्तियां शास्त्रों में माया शब्द से कही गयी है,अतएव कभी कभी विद्वानों को भी माया का अर्थ समझने भूल हो जाती है।

वास्तव में देखा जाय तो सर्वभवनसामर्थ्य रूप माया का ही सब खेल है,सारा जगत जड या चेतन सब का सब इस सर्वभवनसामर्थ्यरूप माया के द्वारा ही बनाया गया है,इसे एक मशीन की तरह समझिये,सुनारों के पास जो एक ढालने का सांचा रहता है,वे लोग सोना चांदी प्रभृति तैजस पदार्थों को उस सांचे का स्पर्श कराकर अनुक पदार्थ तैयार कर लेते है,सुवर्ण ही उस साचे का स्पर्श करके अनेक रूपों में प्रकट हो जाता है,इसी प्रकार भगवान भी उस सर्वभवनसामर्थ्य रूप अपनी माया शक्ति का स्पर्श कर जब प्रकट होता है,तब उस भगवान को ही अल्पबुद्धि लोग जगत कहने लगते है,और कितने ही उसे भगवान से प्रथक समझने लगते है,सबसे बडी यह शक्ति है,उत्कर्ष अपकर्ष समता विषमता भला बुरा सत्य असत्य जो दीखता है वह सब कुछ इसी माया महाशक्ति का ही सामर्थ्य है,माया के सहारे सृष्टि का निर्माण होना यह पौराणवर्णन है,श्रौत नहीं,श्रुति में तो माया के स्पर्श बिना ही भगवान अपने आपको जगत रूप में प्रकाशित करता है।


(लेखक - देवर्षि पं. श्रीरामनाथजी भट्ट)